विसंगत और हास्यास्पद दुरभिसंधियों के काल में पत्रकारिता
यह अभूतपूर्व और इतिहास के काले पन्नों में दर्ज होनेवाली शर्मनाक परिघटना है कि संसद का नेता संसद में जाना नहीं चाहता। वह देश-विदेश का बेलगाम दौरा करता है लेकिन अपने एक प्रदेश में चल रहे भयानक जातीय-हिंसा, नंगा घुमाने और सामूहिक बलात्कार की सरेआम जघन्य शिकार बनायी जा रही स्त्रियों तथा कत्लेआम के बर्बर खूनी खेल से एकदम बेपरवाह बना रहता है।
जयनंदन
इस समय जेनुइन अखबारनबीसों की दुनिया सबसे ज्यादा संशय और ऊहापोह की स्थिति में सांसें ले रही है। यह समय पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए तनी हुई रस्सियों पर नंगे पांव चलने जैसा है। पत्रकारों के लिए ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, निष्पक्ष, निडर रहना आसान नहीं रह गया है। पत्रकारिता की साख इसके पहले इतना कभी न गिरी थी, न बदनाम हुई थी। दरअसल यह साख गिरी नहीं बल्कि बेदाग रहने की वहम तथा ठसक पालने वाली प्रवृतियों द्वारा सायास गिरायी गयी। पत्रकारों के लिए चाटुकारिता, चापलूसी, जीहुजूरी, पक्षपात एक गाली मानी जाती थी। लेकिन आज गाली नहीं ये वृतियां अलंकार और काबिलीयत बन गयी हैं, जिसके बूते विदेश-यात्रा, पद्मपुरस्कार तथा राज्यसभा तक पहुंचा जा सकता है। अखबारों या फिर न्यूज चैनलों को अब संपादक नहीं मालिक या मैनेजर चलाता है, चूंकि उसे यह देखना होता है कि क्या छापने या क्या दिखाने से आमदनी में इजाफा करना और सत्ता के करीब बना रहना मुमकिन होगा।
अधिकांश प्रमुख खबरों व सुर्खियों के स्रोत सत्ता की नीतियाँ, उनके निष्पादन, उनकी घोषणायें, उनकी गतिविधियाँ, उनकी टिप्पणियाँ आदि हुआ करती हैं। बेबाकी से इन पहलुओं का खुलासा करना इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ता या प्रशासन में जमे लोग किस हद तक सहिष्णु व अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर हैं। वे अपने खोखलेपन, निकम्मेपन, दोगलेपन, बड़बोलेपन, जुमलेबाजी, काली कारगुजारियों, कथनी-करनी में अंतर, सब्जबाग के ढकोसलेपन से संबंधित सवाल पूछे जाने पर जवाब देने का माद्दा रखते हैं या फिर बुरी तरह कुढ़-चिढ़कर पटकनी लगाने के फिराक में लग जाते हैं। अदालतों और केन्द्रीय स्वायत संस्थाओं (चुनाव आयोग, प्रवर्तन निदेशालय, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो आदि) का वे सम्मान करते हैं, उन्हें वास्तव में स्वायत रहने देते हैं या निरंकुश रह कर उन्हें भी अपनी कांख तले दबाकर रखना चाहते हैं। वे लोकतंत्र और संविधान की मूल अवधारणा की रक्षा के प्रति तत्पर हैं या उन पर अपनी तानाशाही थोपते रहते हैं। धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता के वे हिमायती हैं या इन पर रोज कुठाराघात करने की मंशा से आक्रांत हैं। इन सभी मुद्दों की निगरानी या कह लें पहरेदारी पत्रकारिता का एक प्रमुख धर्म है।
सवाल है कि क्या आज पत्रकारों को ऐसा धर्म निभाने की आजादी है ? अगर है तो यह स्वर्ण युग है और अगर नहीं है तो एक अपरोक्ष आपातकाल के बेहद घिनौने युग से हम गुजर रहे हैं। पत्रकारिता का यह धर्म अगर पांच-दस प्रतिशत बचा है तो उसका श्रेय सोशल मीडिया (यूट्यूब) पर सक्रिय जोखिम उठाकर बेलाग कहने वाले कुछ निष्ठावान पत्रकारों को जाता है। वरना गोदी मीडिया और बहुतेरे रासोगायक अखबारों ने तो सत्ता-चालीसा लिखने में नये-नये कीर्त्तिमान बना दिये हैं।
वे बुलडोजर से न्याय दिलाने के हामी हैं। गुनाह घर का एक लड़का करता है, सजा पूरे परिवार को बेघर होकर भोगनी पड़ती है। फैसला तुरंत। कानून, पुलिस, अदालत गयी भाड़ में। विपक्ष की चुनी हुई सरकारों के अधिकारों पर रोड रोलर चला देने से उनके अहंकार को तुष्टि मिलती है। बहुमत का तांडव इस तरह, जैसे वे सांसद नहीं किसी गड़ेरिये द्वारा हांके जाने वाले भेड़ हों। जब अदालतों के निर्णयों को पलट देने का खेल शुरू हो जाये तो लोकतंत्र के एक मजबूत स्तंभ की निरीह दशा समझी जा सकती है। कठिन परिश्रम से अन्न उगाकर पूरे देश को भोजन देनेवाले किसानों का आन्दोलन जिस तरह कुचला गया कि उनके जख्म कभी भर नहीं सकेंगे। जब राष्ट्र के नाम का दुनिया भर में डंका बजवाने वाली सम्मानित बेटियों का यौणशोषक के खिलाफ महीनों का आंदोलन बेनतीजा रह जाये और शोषक छाती फुलाकर संसद के गलियारे में बैठकर हंसी बिखेर रहा हो तो समझना मुश्किल नहीं है कि देश की बेटियाँ किस घुटन-काल में पहुंच गयी हैं। यह एक घटना काफी है साबित करने के लिए कि हर व्यक्ति के लिए कानून एक समान नहीं रह गया है। व्यक्ति के रुतबे के हिसाब से कानून की कार्रवाई तय की जाती है। अरबों-खरबों लेकर देश से चंपत हो जाये तो उनका बाल बांका नहीं लेकिन एक किसान हजार-सैंकड़ा न चुकाये तो टॉर्चर इस तरह की आत्महत्या के लिए विवश। कोई बड़ी हैसियत वाला है तो बैंक द्वारा नीलामी की नोटिस भी वापस। यह फतवा कि वंशवाद प्रतिभाओं के लिए खतरनाक है, यह सच जरूर है लेकिन क्या ऐसी कोई भी एक पार्टी है जहां वंशवाद फल-फूल नहीं रहा ? बहुमत की भेड़ें तो है बना दीजिए इस पर एक सख्त कानून। भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिए, लेकिन काली कोठरी से निकलकर है कोई सफेद-बेदाग ?
पत्रकारों, लेखकों और अखबारों के लिए इन विसंगत और हास्यास्पद दुरभिसंधियों के प्रति मुखर होने से कतरा लेने का यह बुरा समय है, ऐसे में अपने शहर जमशेदपुर के एक लोकप्रिय अखबार उदिववाणी अपनी 44वीं जयंती मना रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी टिका रहना इस अखबार का एक प्रशंसनीय पराक्रम है। मेरी अशेष बधाई।
यह अभूतपूर्व और इतिहास के काले पन्नों में दर्ज होनेवाली शर्मनाक परिघटना है कि संसद का नेता संसद में जाना नहीं चाहता। वह देश-विदेश का बेलगाम दौरा करता है लेकिन अपने एक प्रदेश में चल रहे भयानक जातीय-हिंसा, नंगा घुमाने और सामूहिक बलात्कार की सरेआम जघन्य शिकार बनायी जा रही स्त्रियों तथा कत्लेआम के बर्बर खूनी खेल से एकदम बेपरवाह बना रहता है। वहां जाना तो दूर उस विषय पर मुँह खोलना तक उसे गंवारा नहीं। नक्कारखाना बन चुकी संसद का वह दृश्य वीभत्सता का विचित्र बोध कराता है जब एक सुंदर से चेहरे की नालायक महिला मंत्री गंदा, घिनौना, गलीज और घमंड की कीचड़ से लिथड़ी आकृति बनाकर प्रतिपक्ष के एक नेता को निरर्थक कोसने व धिक्कारने की दबंगई दिखाने लगती है। मानो वह इसी काम के लिए मंत्री बनायी गयी हो।
पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवी स्तम्भकारों और अखबारों के लिए इन विसंगत और हास्यास्पद दुरभिसंधियों के प्रति मुखर होने से कतरा लेने का यह बुरा समय है, ऐसे में सोशल मीडिया पर कुछ अव्यावसायिक प्रतिभाओं का बेबाक कहने के लिए डटा रहना एक प्रशंसनीय पराक्रम है।
(जयनंदन हिंदी के चर्चित कथकार हैं। देश की प्राय: सभी श्रेष्ठ और चर्चित पत्रिकाओं में लगभग सौ कहानियाँ प्रकाशित। कुछ कहानियाँ का फ्रेंच, स्पैनिश, अंग्रेजी, जर्मन, तेलुगु, मलयालम, गुजराती, उर्दू, नेपाली आदि भाषाओं में अनुवाद। कुछ कहानियों के टीवी रूपांतरण टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर प्रसारित। नाटकों का आकाशवाणी से प्रसारण और विभिन्न संस्थाओं द्वारा विभिन्न शहरों में मंचन।)