कोस-कोस का पानी: कानपुर जो इक शहर था
कानपुर में लखनऊ से निर्वासित गुंडे भी बसे। जब यह नवाब शुजाउद्दौला की अमलदारी में आया तो लखनऊ से जिन गुंडों को भगाया जाता वह गंगा पार कानपुर आ कर बस जाता
शंभूनाथ शुक्ल
यह 1990 के जाड़ों के शुरुआत की बात है। मुझे एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रीवां जाना था। तब दिल्ली से रीवां के लिए सीधी ट्रेन नहीं थी। एक ही रास्ता था, दिल्ली से इलाहाबाद और वहाँ से वाया सड़क मार्ग रीवां। यह बात वीर सिंह गुर्जर को पता चली तो वे बोले, मैं भी चलूँगा पंडत जी। मैंने कहा चलो, एक से दो भले। हम लोग प्रयागराज एक्सप्रेस से सुबह इलाहाबाद पहुँच गए। स्टेशन पर रीवां से ब्रजेश पांडेय लेने आए थे। बाहर निकल कर सोचा गया कि तीन-चार घंटे के लिए किसी होटल या धर्मशाला में रुक कर फ़्रेश होने के बाद चलें। पांडेय जी सिंधी धर्मशाला ले गए।
एक पुरानी बिल्डिंग थी। मैनेजर साहब एक बुजुर्ग सज्जन थे और उस वक़्त अख़बार पढ़ने में तल्लीन थे। उन्होंने कमरा खुलवा दिया। एक घंटे में हम रेडी थे। लेकिन वीर सिंह ने कहा, पंडत जी पहले संगम स्नान करेंगे फिर लेटे हनुमान जी के दर्शन। इसके बाद अल्फ़्रेड पार्क जा कर चंद्रशेखर आज़ाद का शहीदी स्थल देखेंगे और फिर कमला बहुगुणा (दिवंगत हेमवतीनंदन बहुगुणा की पत्नी) से मिलने जाऊँगा। बहुगुणा जी के परिवार के साथ उनके आत्मीय रिश्ते थे। मैंने कहा वापसी में सब किया जाए। उन्होंने कहा नहीं संगम स्नान तो पहले करूँगा क्योंकि रीवां जाने के लिए यमुना पार करनी होगी और नदी में स्नान व आचमन किये बिना उसे पार करना उसका अपमान है। फिर हनुमान जी से आज्ञा लेकर ही बढ़ूँगा। वीर सिंह ठान लें तो उन्हें रोका नहीं जा सकता था। मैंने पांडेय जी को बोला, कि इन्हें संगम स्नान करवा लाओ, मैं यहीं इंतज़ार करूँगा। वे लोग चले गए और मैं रिशेप्सन में आ कर मैनेजर के पास बैठ गया।
उन्होंने पूछा, आप दिल्ली के हैं? मैंने कहा, दिल्ली में इस समय रह रहा हूँ, वैसे कानपुर का रहने वाला हूँ। वे कुछ यादों में खो गए और बोले, "क्या बात थी कानपुर की भी!" बताने लगे कि "मेरी शादी 1942 में कानपुर में हुई थी। मेरे श्वसुर साहब की दूकान थी माल रोड में। बिरहाना रोड की खत्री धर्मशाला में बारात रोकी गई थी पूरे चार दिन तक। हम लोग बारात लेकर दिल्ली से गए थे। उस जमाने में कानपुर की रौनक़ दिल्ली से कहीं ज़्यादा थी। तब दिल्ली की आबादी 8 लख थी और कानपुर शहर की 12 लाख। हर घर में बिजली। शाम ढलते ही सड़कों पर बिजली के लट्टू जल जाते। क्या मजाल कि कहीं अंधेरा हो। रात भी बिलकुल दिन की तरह चमकदार। और सड़कें एकदम साफ़ चकाचक। रोज़ धोयी जाती थीं। दिल्ली तो तब छोटा-सा शहर था और इतना गंदा कि पूछिये नहीं।"
मेरी रुचि जान कर फिर तो वे मुझसे खुल गए। बताया कि "मेरी पत्नी अकेली थी और उनकी माँ की मृत्यु हो चुकी थी, इसलिए श्वसुर साहब का हाल-चाल लेने और उनका बिजिनेस देखने मुझे बार-बार आना पड़ता था। फिर मैं वहीं उनके साथ रामनारायण बाज़ार में रहने लगा। उस समय कानपुर में दुनिया भर के व्यापारी, उद्योगपति और मज़दूर अपनी क़िस्मत आज़माने आते थे। तब कई मिलों/कारख़ानों के मालिक अंग्रेज थे। उन्होंने अपने मज़दूरों के लिए कालोनियाँ बनवाई थीं। जैसे लाल इमली के मैनेजर सर मैकरॉबर्ट ने मैकराबट गंज और एलेन कूपर के मालिक सर एलेन ने एलेन गंज बसाया था। यहाँ मज़दूरों को रहने के लिए जो क्वार्टर दिए गए, उनमें एक कमरा, बरामदा और खुली सहन थी। आगे और पीछे दो निकास थे। संडास और नहान घर भी। जबकि मारवाड़ी अपने वर्कर की परवाह नहीं करते थे इसलिए लाल इमली, फ़्लेक्स और एलेन कूपर का मज़दूर लाट साहबों की तरह रहता था। इन तीनों कम्पनियों में अधिकतर वर्कर मुसलमान और चमार थे। क्योंकि ये दोनों छुआछूत नहीं मानते थे और मेहनती व दबंग थे।"
उन्होंने एक और मज़ेदार बात बताई कि 'कानपुर बनने से पहले फ़र्रुख़ाबाद, इटावा, कालपी, उरई, ऐट, चरखारी, झाँसी, बांदा, महोबा, खज़ुहा, बिंदकी, उन्नाव, लखनऊ आदि कहीं बड़े शहर थे। लेकिन छावनी बनते ही वहाँ के बनिये लोग यहाँ आ गए'। उन्होंने बताया कि "जुग्गीलाल कमलापत के पुरखे लाला विनोदीराम के बेटे लाला सेवा राम फ़र्रुख़ाबाद से कानपुर आए थे। इनके एक भाई लाला हरनंद राम मिर्ज़ापुर चले गए थे। वे भी कानपुर आ गए। रेल बाज़ार में एक पुरानी मिल इन लोगों ने ख़रीदी। वहाँ एक पक्का तालाब भी बनवाया। इसका नाम सेवाराम सागर है। एक बाग भी लगवाया था"। उनके अनुसार लाला सेवा राम की पाँचवीं पीढ़ी में हुए लाला जुग्गी लाल और उनके बेटे हुए लाला कमलापत। साल 1912 में जुग्गीलाल कमलापत फ़र्म शुरू हुई, जिसे जेके ग्रुप कहा गया।"
उन बुजुर्ग सिंधी सज्जन ने अपना नाम बताया पूरनमल। ये लोग अपना सरनेम गिडवानी लिखते थे। मैंने एक शंका की कि सिंधी-पंजाबी तो 1947 के बाद आए फिर उस समय कैसे पहुँचे? तो वे ख़ूब हँसे और बोले- "सिंधी बनिया क़ौम है। जहां व्यापार दिखा चले गए। ये लोग तो हज़ारों साल से दुनिया भर में फैले हैं। हम लोग डेढ़ हज़ार साल पहले अरब सौदागरों से व्यापार करते थे। जो सिंध में रह गए थे वे पाकिस्तान बनने पर भाग कर इंडिया आए"। उनके अनुसार "1942 में कानपुर में कई हज़ार सिंधी थे। और वे वहाँ सौ-डेढ़ सौ साल पहले आ गए थे। इसी तरह खत्री लाहौर से आए थे। ये भी कानपुर में खूब थे और रईस भी। किराना और आढ़त का व्यापार खत्रियों के पास था। लाला विश्वंभर नाथ खत्री समुदाय के बड़े लोगों में से था। कानपुर का अव्वल बीएनएसडी इंटर कॉलेज उन्हीं के पैसों से बना था"।
गिडवानी साहब ने बताया कि "दिल्ली तब पंजाब सूबे में थी और पालम के बाद का सारा इलाक़ा पटियाला स्टेट का हिस्सा था। पुराना वायसराय हाउस (दिल्ली यूनिवर्सिटी) के बाद जंगल था और दिल्ली की अमलदारी में नहीं था। मेटकॉफ हाउस तक दिल्ली थी। दिल्ली का बड़ा हिस्सा पटियाला स्टेट से लिया गया था। उनके अनुसार पटियाला के नारनौल से कई व्यापारी आए। इनमें एक गौड़ ब्राह्मण परिवार था, जिसने एक एंग्लो इंडियन से शादी की और ईसाई बन गया। इनके पास माल रोड पर एक बड़ी कोठी है। पटियाला के ही कनोड़ से आए कानोडिया और भरतिया। लाला चुन्नी लाल गर्ग के पुरखे जालंधर से आए थे। अंबाला से कई ब्राह्मण परिवार आ कर बसे।"
उनके अनुसार कानपुर में लखनऊ से निर्वासित गुंडे भी बसे। जब यह नवाब शुजाउद्दौला की अमलदारी में आया तो लखनऊ से जिन गुंडों को भगाया जाता वह गंगा पार कानपुर आ कर बस जाता। तमाम रंडियाँ यहाँ फूलवाली गली में आ कर नाच-गाने का पेशा करने लगीं। 1857 के बाद और भी बाग़ी मुस्लिम परिवार आए। यहाँ बिठूर से लेकर जाजमऊ तक घना जंगल था। इनमें जानवर मरते और उनकी लाशें सड़तीं इसलिए अंग्रेजों ने उनकी खाल निकालने का ठेका चमारों को दिया। शहर बढ़ने से यहाँ के चमार ख़ूब धनी हुए। अंग्रेज मरे हुए पशुओं का मांस खा लेते थे। लेकिन उसकी बदबू दूर करने के लिए तीखे मसालों का प्रयोग करते। मारवाड़ी, गुजराती, पारसी, पुर्तगाली, यहूदी यहाँ मसालों का कारोबार ले कर आए। बिगड़े मुस्लिम परिवारों ने यहाँ टेनरीज का काम शुरू किया। यह एक ऐसा व्यवसाय था, जिसे हिंदू छूते नहीं थे। बांसमंडी से लेकर फूल वाली गली तक मरे पशुओं का चमड़ा सुखाया जाता। चमार इसमें रंग भरते। टेनरीज में खूब कमाई है और आज तक यह व्यवसाय 90 प्रतिशत मुसलमानों के पास रहा। बँटवारे के बाद आए रिफ़्यूजी पंजाबियों ने भी एकाध टेनरी शुरू की।
(जारी)
पाद टिप्पणी- मित्र श्री Ranbir Singh Phogat ने इस सीरीज़ में कुछ संशोधन सुझाये हैं। मैं उनके संशोधन से सहमत हूँ।
"कोस-कोस का पानी-55, कानपुर जो इक शहर था! संस्मरण पठनीय हैं. पहले तो जो जैसा बताये, बिना रोके-टोके दर्ज़ करना ही ठीक है. संस्मरण में तथ्यात्मक त्रुटि होने के बावजूद इसे जस का तस ही रिप्रोड्यूस करना चाहिए। फिर अपनी टिप्पणी देकर त्रुटि के बारे बता देना चाहिए। दिल्ली के पश्चिम-दक्षिण का इलाका पटियाला राजा के पास कभी न था. वर्तमान हरयाणा में रेवाड़ी परगना बिहाळी गाँव के अहीर राव शाहबाज़ सिंह को हुमांयूं ने दिया था और सन १८५७ तक उन्हीं के खानदान के पास रहा. १८५७ में इस जागीर को जब्त कर लिया क्योंकि इनके परवार में राव तुला राम ने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत की थी. वे आज भी राणी की ड्योढ़ी में रहते हैं. और इनके वर्तमान वारिस एवं मेरे मित्र हैं राव बिजेंद्र सिंह। महेन्द्रगढ़-नारनौल, दादरी, कांटी की अलग कहानी है. पटियाला, जींद और नाभा स्टेट ने अंग्रेजों की मदद सन १८५७ के विद्रोह को कुचलने में की थी. लिए गए पैसे और मदद के एवज़ में अंग्रेजों ने कांटी का इलाका नाभा राजा को, कनौड़ और नारनौल को पटियाला राजा को और दादरी (चरखी) को जींद स्टेट को दिया जो इनके पास सन १९४७ तक रहे. पहले के टाइम में सोनीपत और वर्तमान फरीदाबाद एवं पलवल तक के इलाके जिला दिल्ली में थे. सन १८४१-४३ के बीच इन्हें इधर-उधर किया जाता रहा. ये दिल्ली दरबार की जागीरें हुआ करती जिन्हें अंग्रेजों ने जब्त कर दिल्ली एजेंसी और रेजीडेंसी से शासित करना शुरू किया। विलियम फ़्रेज़र और चार्ल्स सी. मेटकॉफ अधिकारी थे. गुड़गांव भी १८५७ के बाद सीधा इन्हीं के अधीन था. रेवाड़ी के निकट भाड़ावास में अंग्रेज छावनी बनायी गयी जिसे बाद में गुड़गाँव शिफ्ट किया गया. सोनीपत और झज्जर को जिला रोहतक में शामिल कर दिया गया था. झज्जर को १८५८ में किया गया था."