सुधा भारद्वाज, संजीव भट, कफील,वरवर राव, पानसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश, ब्राह्मणवाद, आरक्षण पर क्यों हीं लिखता, सुनिए
यूरोप के देशों में घूमते हुए आपकी गाड़ी अक्सर ऐसे कैम्पर के बगल से गुजरेगी। कई बार सड़क के आसपास, ऑफ रोड बैठे हुए दिख जाएंगे। कैम्पर खोलकर, अलाव जलाकर.. मियां बीवी न्यूनतम वस्त्रों में बीयर पी रहे है। दूर तक बियाबान..हूक उठती है कि ऐसे ही हम भी एक कैम्पर ले लें। चले जाएं किसी नदी, पहाड़ के किनारे.. नाचे गायें। परिवार सहित रात वहीं गुजारें। पर यह हिंदुस्तान में सम्भव नही। क्यो..
आपको अकेला पाकर लूट लिया जाएगा। गुंडे, बलात्कारी, शोहदे, लुटेरे मौका देखकर टूट पड़ेंगे। अब ऐसी घटना हो गयी, इसके बाद आप उस पर्टिकुलर परिवार के लिए न्याय मांगते रहिये। अगर भूले भटके न्याय मिल गया, दोषी को सजा हो भी गयी, तो इससे पीड़ित के कष्ट, नुकसान, ट्रामा और जिंदगी के नुकसान की भरपाई नही हो सकती। वहीं दूसरी ओर ऐसी नई नई घटनाएं होना बदस्तूर जारी रहेगा।
लार्जर ईशु एक स्वस्थ समाज और जागृत गवर्नेस है। दूसरों की लाइफ में दखल न देने वाला, जीने और खुश रहने का सुरक्षित माहौल है। इसे आप इंडीविजुअल केसेज में न्याय हासिल करके, या आवाज उठाते हुए हासिल नही कर सकते। मानता हूँ, कि इन केसेस की आइकोनिक वैल्यू है। मगर है तो इंडीविजुअल मामले .. जिस पर सत्ता निर्लज्जता से अड़ी है। और हम असहाय होकर घर बैठे डिसलाइक-डिसलाइक खेलने में लगे हैं।
इनको न्याय फेसबुकिया लेखन से नही, नागरिको के लाखों की तादाद में सड़क पर उतरने से ही मिल सकता है। "जनता उतर आएगी" का स्थायी भय, सत्ता के दिल मे होने से मिल सकता है। बिंदास होकर किसी एक पक्ष, एक दल को साथ लेकर, उसके साथ खड़े होने से मिल सकता है।
आपका पक्ष, आपका कन्धा, सदैव विपक्ष का होना चाहिए। सत्ता बदलते ही आपका पक्ष बदल जाना चाहिए। पर वो, इस "राजनीति से तटस्थ" रहने वाले... वामपन्थ, दक्षिणपंथ, एक्टिविज्म, धरने रैली, प्रदर्शन को देशद्रोह समझने वाले मूर्ख, दम्भी और स्टुपिड् पार्टीगत आस्थावादियों के समाज मे होगा नही।
तो बड़ी समस्या ये इंडिविजुअल मामले नहीं, यह "राजनीति से तटस्थ" रहने वालों का मूर्ख, दम्भी और स्टुपिड्स का समाज है। जो अपने सुख समृद्धि, न्यायप्रिय, शांत, और कैम्पर में परिवार संग घूमने लायक माहौल के लिए नही, बल्कि मन्दिर- मस्जिद, परपीड़ा और आंतरिक धूर्तता की पूर्ति के लिए सरकारें चुनता है।
मेरे लिखने से अगर दस बीस दिमागों में घण्टी बजे। वे अपने आसपास जागृत नजर रखने लगे। राजनीतिक प्रशासनिक रूप से प्रबुद्ध, एक्सप्रेसिव, वोकल 50 जुबानों को ताकत दे सकूँ, तो शायद मैं अपने उस कैम्पर वाली शाम की ओर एक कदम बढ़ पाऊंगा।
मैं तो बस उस शाम की चाहत में लिखता हूँ जनाब।