15 महीनें तक एक दूसरे के प्यार में डूबे होने के बाद हमने महसूस किया था कि अब हमें एक साथ रहना चाहिए। कई दिनों के कशमकश के बाद आख़िर हम लोगों ने दिल्ली के अलग अलग कमरों से अपना बैग पैक किया और एक बेडरूम सेट फ्लैट हमारे लिए किराये पर ले लिया। हमारी शादी नहीं हुई थी पर हम दोनों भीतर से सच में पति पत्नी जैसा महसूस कर रहे थे या फिर कुछ और। सही सही कुछ कह नहीं सकती पर वह फीलिंग बहुत ख़ूबसूरत थी। मैं सोच रही थी ऐसा क्यों हो रहा।
हम इतने समय से तो साथ ही हैं बस अलग अलग कमरों की बजाय अब एक ही कमरे में। सच सिर्फ इतना ही बदला था क्या। शायद नहीं या शायद हाँ। बड़ी अजीब सी मुश्किल में थी पर ख़ुश थी। रितेश अचानक से जिम्मेदार सा हो गया था। प्यार तो वह पहले भी करता था पर अब शायद ज़्यादा महसूस हो रहा था।
मैं उसके लिए कभी कभी अपने रूम से कुछ बनाकर ले आती थी पर पूरे सात दिन हो गए थे मैंने चाय के अलावा इस नए घर में कुछ नहीं बनाया था। हम दोनों के सुबह ऑफिस निकलने से पहले वह कुछ न कुछ बना लेता था और वह जो भी बनाता है मुझे लगता था इससे ज़्यादा स्वादिष्ट मैंने आज तक कुछ भी नहीं खाया है। मैं अक्सर हँसते हुए उसके हाथ चूम लेती थी और वह कभी मेरा माथा तो कभी गालों पर अपने प्यार की मुहर लगा देता था।
मुझे लगने लगा था मैं इस दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की हूँ। दोनों ऑफिस से शाम को जल्दी से घर आने की कोशिश करते । सुबह अधूरे छोड़ गए कामों को साथ मिलकर पूरा करते । कभी कुछ बना लेते कभी बाहर से डिनर आर्डर कर लेते। एक दूसरे की बाहों में खोये हुए घँटों बेहतर भविष्य के सपने बुनते और इस बीच पता नहीं कितनी बार और कहाँ कहाँ एक दूसरे को प्यार से चूमते।
कई महीने इस तरह से बीत चुके थे और अब हमें आने वाले समय यानि शादी की जिम्मेदारियों के लिए खुद को तैयार करना था।मम्मी पापा से बात करनी थी। ज्यादा पैसे कमाने थे और इसके लिए हमने नई नौकरी की तलाश से लेकर ओवर टाइम तक सब कुछ करने लगे थे। अब हप्ते में एकाध दिन ही हम साथ नाश्ता कर पाते। हमारी ड्यूटी बदल चुकी थी । मेरी दिन की शिफ्ट और उसकी नाईट शिफ़्ट हो गयी थी। वो वापस आता तो मैं सो चुकी होती और मैं ऑफिस जाती तो वह बिस्तर से ही बाय बोल देता।
सालों बीत चुके थे। घर में ऐशो आराम के सामान बढ़ चुके थे। खाना रोज न बनाना पड़े इसके लिए फ्रिज और माइक्रोवेव का इंतेज़ाम भी हो गया था। टीवी की जगह एलईडी ने ले ली थी और प्यार की जगह अकेलेपन ने। कई कई दिन हो जाते थे हम अपनी खुशियाँ क्या ज़िंदगी की छोटी छोटी समस्यांए भी एक दूसरे से नहीं शेयर कर पा रहे थे। हाँ बेड हमारा अभी भी एक ही था पर सोते हम उस पर अलग अलग ही थे। सच कहूँ मैं अंदर ही अंदर घुटने लगी थी। चिड़चिड़ी होती जा रही थी। जब भी उससे बात करने की कोशिश करती कभी उसका काम और कभी उसकी थकान आड़े आ जाती। अब प्यार की जगह शिकायतें होने लगी थी । जब भी बोलती एक ही जवाब किसके लिए कर रहा हूँ यार..तुम्हारे लिए ही न..हमारे भविष्य के लिए ही न और इसी के साथ बात ख़त्म हो जाती।
कभी कभी मुझे शक़ होने लगता हमारे रिश्ते पर । मैं सोचती क्या यह वही लड़का है जो पागलों की तरह मुझसे मिलने के लिए घँटों इंतेज़ार करता था। जिसने अलग अलग रहने की बजाय एक साथ एक ही घर में रहने के लिए मुझे राजी कर लिया था जिससे हम अधिक समय साथ रह सकें। सोचते सोचते दिमाग फ़टने लगता। काम में मन नहीं लग रहा था। कितने ही महीने हो गए थे पैसे और प्रमोशन की चाहत हमें ऑफिस से छुट्टी लेने से रोक देती थी। पर मैनें सोच लिया था। अब और नहीं। मैंने उसे बताये बिना आज ऑफिस से छुट्टी ले ली थी। अचानक उसकी आँख खुली तो उसकी निगाह कमरे की दीवार पर लगी क्लॉक पर गयी। देखा अभी 8 बजकर पचपन मिनट हुए थे मतलब मैं पाँच मिनेट अभी और थी घर में। उसने बाय किया। मैंने जवाब नहीं दिया। उसने फिर बाय किया इस बार भी उसे निराशा हाथ लगी। उसने अपना मोबाइल उठाया और मेरे मोबाइल पर कॉल की जो बिस्तर से लगे साइड टेबल पर वाइब्रेट हो रहा था। अब वह चिंता करने लगा था। मुझे आवाज़ देता हुआ वह बेडरूम से बाहर आ चुका था। मुझे सोफे पर बैठा देख चिल्लाने लगा था क्या मजाक है यह। बोल क्यों नहीं रही तब से। ऑफिस क्यों नहीं गयी । तबियत तो ठीक है न कहते हुए उसने मेरे माथे और फिर गाल पर हाथ रखा।
मुझे लगा जैसे कोई मोम मेरे भीतर पिघल गया हो। आँखों से कुछ बूँदे उसके हाथ पर टपक गयी। उसने मुझे अपने सीने से किसी बच्चे के जैसा चिपका लिया और मेरी पीठ सहलाने लगा यह पूछते हुए कि बाबू क्या हुआ..बोलो तो सही.. कहीं कोई बात हुई क्या...मैंने नहीं में सिर हिला दिया। उसने मेरे दोनों गालों को अपनी हथेलियों से थाम मेरे माथे को कई कई बार चूमा और सालों से जमा मेरी आँखों का नमक अपनी हथेलियों में हमेशा के लिए रख लिया।
#इश्क़वालीपाती
@ निवेदिता सिंह