नफ़रतों के हमको फिर मंज़र नज़र आने लगे ।
रंजो गम के फिर नए मौसम नज़र आने लगे ।।
दाग़ दामन के छुपाकर सामने वो आ गए ।
कल के रहज़न अब हमें रहबर नज़र आने लगे ।।
का़तिलों और जा़लिमों की सफ़ में था जिनका शुमार ।
इस नए मौसम में वो रहबर नज़र आने लगे ।।
फिर से लहजे में मोहब्बत की कमी होने लगी ।
फिर से रंजो ग़म के वो मौसम नज़र आने लगे ।।
हर कोई अपनी ही धुन में मस्त है अब दोस्तों ।
अब तो दिन में ही हमें मैकश नज़र आने लगे ।।
महफिलें सजने लगीं शामो सहर हर गांव में ।
अब गरीबी मिटने के अवसर नज़र आने लगे ।।
सांप सारे बंद थे अपने बिलों में खौ़फ़ से ।
बीन की आवाज़ पर बाहर नज़र आने लगे ।।
दोस्तों को जो समझते थे फ़क़त़ अपना जहां ।
उनको अपने दोस्त अब दुश्मन नज़र आने लगे ।।
अब मुजाहिद तंग दिल दुनिया से ही उकता गया ।
ख़ून के रिश्ते उसे रसमी नज़र आने लगे ।।*
- मुजाहिद चौधरी, एडवोकेट
स्तंभ लेखक, विश्लेषक, कवि