पेरियार: हमारे आधुनिक चार्वाक
इतिहास में अगर मगर का कोई मतलब नहीं होता है, लेकिन आज को समझने में कभी कभी ये अगर मगर काम आ जाते है. डा. अंबेडकर और पेरियार के बीच वैचारिक साम्य और उनकी आपसी नजदीकी के बावजूद जमीनी स्तर पर पिछड़े वर्ग और दलितों के बीच कोई दूरगामी रणनीतिक मोर्चा नहीं बन पाया..
आधुनिक समय में पेरियार और डा. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म के ठीक कोर पर हमला बोला था. जहां अम्बेडकर ने मुख्यतः वैचारिक ज़मीन से हमला बोला वहीं पेरियार ने मुख्यतः आंदोलनात्मक ज़मीन से हमला बोला. लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही था. हिन्दू कहे जाने वाले समाज का पूर्ण जनवादीकरण. हिन्दू धर्म का जिस तरह का सामाजिक ढांचा था [और है], उसमें 'सामाजिक अत्याचार' किसी भी तरह से 'राजनीतिक अत्याचार' से कम महत्व नहीं रखता. डा. अम्बेडकर की तरह ही पेरियार भी इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि इस सामाजिक अत्याचार की जड़ जाति-व्यवस्था है जिसे हिन्दू धर्म में तमाम ग्रंथों, अनुष्ठानों और तमाम भगवानों द्वारा मान्यता दी गयी है और उसका सूत्रीकरण [codification] किया गया है. यानी हिन्दू धर्म का मुख्य काम इसी जाति-संरचना को बनाये व बचाए रखना है. पेरियार मानते थे की हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जिसकी कोई एक पवित्र किताब नहीं है. कोई एक भगवान् नहीं है, जैसा कि दुनिया के दूसरे बड़े धर्मो में है. ना ही इसका कोई उस तरह का इतिहास है, जैसा यहूदी, इसाई या मुस्लिम धर्म का है. यह एक काल्पनिक विश्वास पर टिका हुआ है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते है, शूद्र उनके नीचे होते हैं और बाकी जातियां अछूत होती हैं. जाति के बारे में डा. अम्बेडकर के प्रसिद्ध 'श्रेणीबद्ध असमानता' [graded inequality] को आगे बढ़ाते हुए पेरियार ने इसे आत्म सम्मान से जोड़ा और कहा कि जाति व्यवस्था व्यक्ति के आत्मसम्मान का गला घोंट देती है. उनका 'सेल्फ रेस्पेक्ट आन्दोलन' इसी विचार से निकला था.
पेरियार इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि भारत में हिन्दू धर्म 'अफी़म' नहीं बल्कि 'ज़हर' है जो अपनी जाति संरचना के कारण इंसान की इंसानियत का क़त्ल कर देती है.
दूसरी तरफ गाँधी इस जाति-आधारित धर्म को इसाई धर्म और इस्लाम धर्म की तर्ज पर एक मुकम्मल धर्म बनाना चाह रहे थे. यानी एक किताब [गीता] और एक भगवान् [राम], एक प्रार्थना [वैष्णव जन तो.....] वाला धर्म. लेकिन यह प्रयास करते हुए वे जाति व्यवस्था को बिल्कुल नहीं छूना चाहते थे. गांधी के इस ज़िद के कारण पेरियार गाँधी के प्रति डा. अम्बेडकर से भी ज़्यादा कठोर थे. पूना पैक्ट के दौरान उन्होंने डा. अम्बेडकर को सन्देश भेजा कि किसी भी क़ीमत पर गाँधी के सामने झुकना नहीं है. उनका सीधा कहना था कि गाँधी की एक जान से ज्यादा कीमती है करोड़ो दलितों का आत्म-सम्मान. पेरियार ने कांग्रेस और गाँधी को शुरू में ही पहचान लिया था. पेरियार ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद पर कटाक्ष करते हुए उसे 'राजनीतिक ब्राह्मणवाद' कहा था.
जाति-व्यवस्था और उपनिवेशवाद के कारण भारत की अनेक राष्ट्रीयताएँ विकसित नहीं हो पाई. बल्कि इसके विपरीत 'राष्ट्रीयताओं का जेलखाना' हो गयी. इस तथ्य को पेरियार बखूबी पहचानते थे. 1930-31 में उनकी सोवियत यात्रा ने भी उनकी इस समझ को धार दी. अलग 'द्रविड़नाडू' के लिए उनका आन्दोलन वास्तव में तमिल राष्ट्रीयता को जेल से आज़ाद कराने का आन्दोलन था. तथाकथित आज़ादी [यह दिलचस्प है की एक ओर जहां कम्युनिस्टो ने 15 अगस्त 1947 को 'झूठी आज़ादी' के रूप में इसका बहिष्कार किया, वहीं पेरियार और उनके अनुयायियों ने इस दिन को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया और काली कमीज व काले झंडे के साथ जगह जगह प्रदर्शन किया.
इसके बाद अलग तमिल राष्ट्र के लिए उनके उग्र आंदोलनों की वजह से ही 1957 में भारत सरकार एक क़ानून लेके आई, जिसके अनुसार अब अलग राष्ट्र की मांग करना देशद्रोह हो गया. इसी के बाद कश्मीर और पूरे उत्तर-पूर्व का जन-आन्दोलन आतंकवाद और देशद्रोह बन गया.
महिला मुक्ति के सवालों पर पेरियार के विचार जर्मनी के मशहूर समाजवादी 'आगस्त बेबेल' की याद दिलाते हैं. पेरियार महिलाओं की पूर्ण मुक्ति के पक्षधर थे. उनके अनुसार- ''भारत में महिलायें सभी जगह अछूतो से ज्यादा बुरी दशा और अपमान का जीवन गुजारती हैं. पश्चिम में 1960 के दशक के अंत में जाकर गर्भ निरोध को महिलाओं की मुक्ति के साथ जोड़ा जाने लगा. लेकिन पेरियार काफ़ी पहले ही इसकी बात करने लगे थे. उन्ही के शब्दों में- 'दूसरे लोग महिलाओं के स्वास्थ्य और परिवार की संपत्ति के केन्द्रीयकरण के सन्दर्भ में ही गर्भ-निरोध की बात करते हैं, लेकिन मैं उसे महिलाओं की मुक्ति से जोड़ कर देखता हूँ.'
इतिहास में अगर मगर का कोई मतलब नहीं होता है, लेकिन आज को समझने में कभी कभी ये अगर मगर काम आ जाते है. डा. अंबेडकर और पेरियार के बीच वैचारिक साम्य और उनकी आपसी नजदीकी के बावजूद जमीनी स्तर पर पिछड़े वर्ग और दलितों के बीच कोई दूरगामी रणनीतिक मोर्चा नहीं बन पाया. और तत्कालीन कम्युनिस्ट नेतृत्व ने तो खैर जाति को समझा ही नहीं. बल्कि यूं कहे की तत्कालीन कम्युनिस्ट नेतृत्व ने कुछ भी नहीं समझा. ना वे राज्य को समझ पाए, ना कांग्रेस को, ना राष्ट्रीयता को. आश्चर्य की बात तो यह है कि नक्सलबाड़ी के पहले तक कम्युनिस्टों के पास क्रांति का कोई ठोस कार्यक्रम ही नहीं था.
यदि इतिहास दूसरे तरीके से शक्ल लेता और डा. आंबेडकर, पेरियार और कम्युनिस्टों में एक रणनीतिक एकता बनती तो आज भारत की शक्ल ही कुछ और होती. पाश को तब यह न कहना पड़ता कि 'मेरे दोस्तों, ये कुफ्र हमारे ही समय में होना था.'
- मनीष आज़ाद