शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की याद
फ़िराक़ और फ़ैज़ को मामूली शाइर मानते थे हालांकि वे ख़ुद उनसे भी मामूली शाइर थे । उर्दू की ज़दीद शाइरी के वे शाइर भी थे और नक्काद भी
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम ए करने के बाद आईएएस का इन्टरव्यू देने 24 जनवरी 1957 को पहली बार दिल्ली गए । वे फ़िराक़ साहेब और हरिवंशराय बच्चन के शिष्य थे ।
इंटरव्यू में उनसे पूछा गया कि अब तो आप ज़रूर 26 जनवरी की परेड देखकर ही इलाहाबाद लौटेंगे ? जवाब में फ़ारूक़ी साहेब ने कहा कि नहीं ऐसे तमाशों में मेरा कोई यक़ीन नहीं ।
इस जवाब से उन्हें इंटरव्यू में शून्य यानी 0 नम्बर दिया गया । इससे यह हुआ कि वे मुख्य आईएएस की बजाय लिखित नम्बरों के आधार पर आईएएस अलाइड यानी भारतीय डाक सेवा के लिए चुने गए ।
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जीवन भर विवादों से घिरे रहे । वे अपनी बातें बेबाक ढंग से व्यक्त करते रहे । उर्दू अदब में जितनी बहसें उन्होंने और उनकी पत्रिका 'शब ख़ून' ने शुरू कीं उसकी कोई मिसाल नहीं ।
वे फ़िराक़ और फ़ैज़ को मामूली शाइर मानते थे हालांकि वे ख़ुद उनसे भी मामूली शाइर थे । उर्दू की ज़दीद शाइरी के वे शाइर भी थे और नक्काद भी ।
वे मीर को ग़ालिब से बड़ा शाइर मानते थे और ठीक ही मानते थे और उनकी तुलना शेक्सपीयर से करते थे जबकि मेरी दृष्टि से मीर की तुलना महाभारत से होनी चाहिए ।
वे काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे और भरतमुनि, आनन्दवर्धन और कुंतक के रस, ध्वनि और वक्रोक्ति सिद्धान्त के कायल थे और इनके ज़िक्र से उर्दू की महफ़िलें लूट लेते थे । वे किसी भी तीसमारखाँ को अहमक कह सकते थे ।
मैं शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का प्रशंसक हूँ । मुझे अफ़सोस है कि कभी फ़ारूक़ी साहेब के दर्शन नहीं कर सका और शायद यह अच्छा ही हुआ । अगर मुलाक़ात होती तो कुछ भी हो सकता था ।
उनका ज़माने भर में मशहूर नॉवेल 'कई चाँद थे सरे आसमाँ' निश्चय ही एक शाहकार है जिसे उनके अलावा कोई और नहीं लिख सकता था । यह नॉवेल लिखकर उन्होंने हम सब पर एहसान किया है ।
लेकिन मेरा मानना है कि इस नॉवेल का नाम यदि 'चार सुहाग रातें' होता तो बेहतर होता । वज़ीर खानम की चार मधुरात्रियों का ऐसा दिलफ़रेब और कामोत्तेजक वर्णन भारतीय वाङ्गमय में दुर्लभ है । इसमें ज़रूर फ़ारूक़ी साहेब ने महाकवि कालिदास के शृंगार वर्णन से सहायता ली होगी ।
दाग़ जैसा रोमांटिक-रोमियो शाइर वज़ीर खानम की कोख से ही पैदा हो सकता था ।
भारत में मुग़ल-संस्कृति की त्रासदी-पराभव-पतन का ऐसा रससिक्त वर्णन कोई दिलजला अदीब ही कर सकता था । अद्भुत और अपूर्व । यही कहा जा सकता है ।