कृषि कानूनों की वापसी : किसानों ने भविष्य तो बचाया पर खाली हाथ है उनका वर्तमान
27 रुपए की दैनिक आमदनी रही है पिछले सालों में किसानों की, आज 50% किसान कर्ज में पूरी तरह डूब चुके हैं? 2023 में अब एमएसपी पर मचेगी रार!
2022 अब चला-चली की बेला में है, इसकी केवल चंद सांसें शेष हैं, इसके अंत के साथ ही नव-वर्ष 2023 की किलकारी भी जल्द ही गूंजने वाली है। विगत को विदा तथा आगत के स्वागत की औपचारिकताओं के बीच यह कैलेंडर वर्ष भी हर साल की तरह एक बार फिर अपनी केंचुली बदल लेगा। लेकिन इस कैलेंडर वर्ष में देश की आबादी के सबसे बड़े हिस्से देश के किसानों ने क्या खोया पाया इस पर निष्पक्ष चिंतन जरूरी है।
किसानों का पिछला साल अभूतपूर्व आंदोलन में बीता। दिल्ली के सीमाओं पर लगा किसानों का ऐतिहासिक मोर्चा साल के अंत में विवादास्पद तीनों कृषि कानूनों को 29 नवंबर को संसद में कानून के रद्द करने के बाद 11 दिसंबर से हटने लगा। हालांकि किसान संगठनों ने स्पष्ट रूप से कहा कि आंदोलन स्थगित हुआ है, खत्म नहीं हुआ है। कह सकते हैं कि 2022 की शुरुआत किसानों के मोर्चे पर अस्थाई युद्ध विराम से हुई। दरअसल तीनों कानूनों को वापस करवा कर किसानों ने कुछ हद तक देश के खेती-किसानी का भविष्य तो बचाया पर उनके वर्तमान के दोनों हाथ आज भी बिल्कुल खाली हैं। 2021 की शुरुआत में देश का किसान तीनों कानूनों के मोर्चे पर सरकार से भले तात्कालिक रूप से जीत गया किंतु कोरोना के कहर ,डीजल, खाद बीज दवाई की बढ़ती मार और पक्षपाती बाजार तीनों ने मिलकर उसकी कमर तोड़ दी।
यूं तो माना जाता है कि नए साल का स्वागत अच्छी खुशनुमा खबरों से किया जाना चाहिए। अतः देश की आर्थिक समृद्धि की अगर बात करें, तो हमने हमें गुलाम बनाकर 200 वर्षों से ज्यादा सालों तक हम पर राज करने वाले इंग्लैंड को पछाड़ कर, वैश्विक अर्थव्यवस्था में पांचवें स्थान का ताज हासिल किया है। इधर हाल में ही "हारून इंडिया वेल्थ" की एक रिपोर्ट आई जिसमें बताया गया कि भारत में मिलियनर्स की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है और हर्ष का विषय है कि यहां 4.12 लाख मिलियनर्स हो गए हैं। इसी कड़ी में आगे अंतरराष्ट्रीय संस्था "क्रेडिट सुइस" के आर्थिक सर्वेक्षण का तो दावा है कि अगले 5 वर्षों में हमारे देश में मिलियनर्स की संख्या दुगनी हो जाने वाली है। और हां अब तो हम जी -20 के अध्यक्ष भी हो गए हैं। अब भला हमें और क्या चाहिए, खुशफहमी पालने के लिए इतना क्या कम है? लेकिन, क्या सचमुच देश में मिलियनर्स की बढ़ती संख्या देश की खेती और किसानों के लिए कोई शुभ लक्षण है। देश के किसानों की आय मे वृद्धि अथवा देश में अरबपतियों की बढ़ती संख्या दोनों मे से देश की आर्थिक समृद्धि का वास्तविक सूचकांक आखिर आप किसे मानेंगे?
सिक्के का दूसरा पहलू भी जरा देखिए , भारत सरकार की "द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑफ फार्मर " का कहना है कि पिछले सालों में भारत के किसान औसतन केवल ₹27 सत्ताइस रूपए मात्र की रोजान कमाई कर पाए हैं। कृषि मंत्रालय ने अन्नदाताओं की आय से संबंधित जो सबसे ताजा आंकड़े जारी किए थे उसके मुताबिक भारत का किसान परिवार प्रतिदिन औसतन सिर्फ 264.94 या 265 रुपये कमाता है, यह 265 रूपए रोजाना एक व्यक्ति की आय नहीं है बल्कि पांच सदस्यों के औसत परिवार सम्मिलित रोजाना आमदनी है। हमारे देश के प्रति व्यक्ति आय के मामले में यहां यह बताना भी लाजमी है कि प्रायः गरीबी,भूखमरी,बाढ़, अकाल, और न्यूनतम आमदनी के लिए जाना जाने वाला पड़ोसी बांग्लादेश इस साल प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में हम से आगे निकल गया है।जबकि केवल 15 साल पहले इसी बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आमदनी हमारे देश की प्रति व्यक्ति आमदनी की मात्र आधी थी।
एक ओर देश में अरबपति अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर खेती और किसानों की जिंदगी दिनों दिन कठिन होती जा रही है। हर कैलेंडर वर्ष के साथ अमीरों और गरीबों के बीच की खाई चौड़ी होते जा रही है।
दिन रात कुर्सी हासिल करने और उसे बचाने के खेल में लगी सरकारें धीरे-धीरे यह भूलते जा रही है कि देश का सबसे महत्वपूर्ण वर्ग रहा है ये किसान,जिसके पसीने के दम पर यह देश पूरी दुनिया में सोने की चिड़िया कहलाता था। कुछेक सालों पहले तक किसान और खेती के महत्व व उपादेयता को रेखांकित करती हुई अकबर के समकालीन कृषि पंडित महाकवि घाघ की एक कहावत बड़ी मशहूर थी, उत्तम खेती मध्यम बान,निषिद चाकरी भीख निदान।। मतलब साफ था कि समाज में अव्वल दर्जे पर अन्नदाता किसान और उसकी खेती फिर व्यापार और नौकरी आदि सामाजिक उपादेयता के क्रम में क्रमश: उसके बाद आते हैं। वैश्विक बाजारवाद की ताकतों ने खेती और किसानी की इस लगभग 500 साल पुरानी कहावत के अर्थ और निहितार्थों को सीधे-सीधे 180 डिग्री पर पलट दिया है। आज 10 एकड़ के किसान का बेटा भी अपनी जमीन बेचकर हासिल पैसे को रिश्वत में देकर भी चपरासी की नौकरी करना चाहता है। जाहिर है कि अपने पिता की दुरावस्था को लगातार देखते हुए बड़ा हुआ बेटा किसी भी हालत में घाटे खेती नहीं करना चाहता।
भारत सरकार की "द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑफ फार्मर" का कहना है कि साल 2018-19 के दौरान भारत के हर किसान ने हर दिन केवल ₹27 सत्ताइस रूपए की कमाई की। सन 2022 के अंतिम हफ्ते में भी हालात इससे कुछ बेहतर नहीं दिखते। हम इससे अंदाज लगा सकते हैं कि किसानों का जीवन कितना कठिन हो गया है, और क्यों पिछले दो दशकों में 4 लाख से ज्यादा किसान पूरी तरह से पस्त होकर निराशा और मजबूरी में आत्महत्या का मार्ग चुन चुके हैं। इसे आत्महत्या कहना उचित नहीं है बल्कि यह सरकार और बाजार की पक्षपाती नीतियों द्वारा की गई किसानों की हत्या है। ध्यान रखें किसान बड़ा ही स्वाभिमानी और जबरदस्त जीवट प्राणी होता है।जल्दी हार नहीं मानता किसान। किंतु जब संभावनाओं के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं, तो सारे दरवाजे खटखटा लेने के बाद,जब उसे कही भी कोई रास्ता नहीं दिखता,कहीं से भी आशा की कोई भी किरण नजर नहीं आती तब जाकर कोई किसान मजबूरी में आत्महत्या का रास्ता चुनता है। ध्यान रखें एक किसान आत्महत्या करने के पहले ही हजारों बार मर चुका होता है। इस निर्मम आखेट में फंसकर किसानों का इस तरह से जान देना इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी है।
ऐसा नहीं है कि इन वर्गों के उत्थान के लिए नीतियां और योजनाएं नहीं बनाईं गई। यह योजनाएं देखने, पढ़ने, सुनने में भले आकर्षक लगती हैं, किंतु इन नीतियों की मूल डिजाइन ऐसी रही है कि किसानों की कमाई को जानबूझकर कम रखा जाए। कमाई कम होगी तो ये गांव छोड़कर शहरों की तरफ प्रवास करेंगे। शहरों को,कारखानों को सस्ती कीमत पर मजदूर मिलेंगे। कारपोरेट्स दिनों दिन मालमाल और किसान मजदूर बदहाल होंगे।अगर कमाई कम है तो कर्ज के बोझ का बढ़ना भी स्वाभाविक है। और बिल्कुल ऐसा ही हुआ भी । साल 2012-13 में देश के हर किसान पर औसतन 47 सैंतालीस हजार का कर्जा का बोझ था। यह बढ़कर साल 2018-19 में तकरीबन 74 चौहत्तर हजार हो चुका है। नए सरकारी आंकड़े आने अभी बाकी हैं, जिस तरह से हमारे देश के हर नागरिक पर कर्जा बढ़ रहा है। जाहिर है अगर यही हाल रहा तो हम देश के प्रति व्यक्ति के सिर पर एक लाख रुपए कर्ज के लक्ष्य तक 2023 में अवश्य पहुंच जाएंगे। सबसे बुरा हाल किसानों का है। देश के लगभग 50% किसान कर्ज के बोझ तले इतना दब चुके हैं कि उनके उबरने की अब कोई आशा नहीं दिखती। कर्ज में डूबे किसान की दयनीय दशा पर को आज से 100 साल पहले 1921 मुंशी प्रेमचंद ने दिल को छू लेने वाली एक कालजयी कहानी लिखी थी "पूस की रात"। इसके नायक किसान हल्कू तथा उसकी पत्नी मुन्नी के बीच का वार्तालाप दृष्ष्टव्य है। मुन्नी अपने पति हल्कू से कहती है ।
" मैं कहती हूं, तुम खेती क्यों नहीं छोड़ देते। मर-मर कर काम करो। पैदावार हो तो उससे कर्जा अदा करो। कर्जा अदा करने के लिए तो हम पैदा ही हुए हैं। ऐसी खेती से बाज आए।"
यह देश का दुर्भाग्य है, पर सच यही है कि आजादी के 75 साल बाद 2022 को विदा करने की बेला में आज भी देश के बहुसंख्य किसानों की दशा अभागे हल्कू, होरी से बेहतर नहीं है।
हमारे समाज के इस सबसे बड़े और सबसे ज्यादा प्रताड़ित, तिरोहित, पददलित, असहाय किसान वर्ग की पीड़ा क्या हमारे चिंतनशील जागरूक मीडिया तथा साहित्यिक बिररादरी के चिंतन, लेखन, विमर्श का विषय नहीं होना चाहिए। मीडिया जहां सत्ता,राजनीति और बाजार के त्रिदेव की परिक्रमा कर रहा है वहीं समकालीन साहित्य की परिधि राजनीति कस्बों और महानगरीय जीवन तक ही सिमट के रह गई है।
तो 2023 में देश के किसान के लिए आशा की किरण आखिर कहां छिपी है? सबसे पहले हम अपनी सरकार की ओर देख लेते हैं। इस जिद्दी सरकार ने किसान आंदोलन के दबाव में तीनों कानूनों को वापस तो ले लिया पर इससे उसके अहं को बड़ी चोट पहुंची है ऐसा दिखता है । सरकार के नुमाइंदे ऊपर से भले ही किसान हित की कितनी भी बातें करें, पर हकीकतन यह सरकार किसानों व उनके संगठनों से बुरी तरह से नाराज है, और हर मोर्चे पर उन्हें नीचा दिखाने में लगी हुई है। यही कारण है कि आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज किए गए मुकदमों को सरकार ने वादा करके आज पर्यंत वापस नहीं लिया है। लोकतंत्र में निष्पक्ष मीडिया चौथी बड़ी ताकत होता है, वर्तमान में देश का मीडिया एक हद तक सत्ता व कार्पोरेट्स के मजबूत गठजोड़ के सामने मजबूर दिखता है। लोकतंत्र में विपक्ष की भी बड़ी भूमिका होती है किंतु विपक्ष पूरी बिखरा हुआ,दिग्भ्रमित तथा लगभग पस्त है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस-पार्टी किसान राजनीति में अपनी जमीन तलाश रहे तथाकथित कुछेक मौकापरस्त किसान नेताओं को साथ लेकर किसानों की समस्या को बूझने और उन्हें साधने की कोशिश कर रही है, ऐसे में इनसे भी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। भाजपा के अनुषंगी किसान संगठन जो कि अपने दांत और नाखून पहले ही गिरवी रखे चुके हैं, किसानों के नाम पर यदाकदा निरर्थक गर्जना करते घूम रहे हैं, इस नूरा कुश्ती का का भी कुछ खास हासिल नहीं है। उत्तर भारत और महाराष्ट्र के गन्ने की राजनीति से पैदा हुए किसान नेताओं के पास गन्ना किसानों का कुछ ठोस जनाधार तो है पर आज भी वे गन्ने की राजनीति में ही उलझे हुए हैं। गन्ने से इतर समस्याओं की न तो इन्हें विशेष समझ है, न विशेष रुचि है, और ना ही इनके पास इनका कोई ठोस निदान है।
इधर सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ जैविक खेती, जीरो बजट खेती आदि कई लपूझन्ने जोड़कर अपने जेबी तनखैया मेंबरान मनोनीत करके जैसे तैसे एक "एमएससी कमेटी का एक बेडोल बिजूका" बना कर खड़ा कर दिया है, जिससे किसान का कोई भला होने की जीरो प्रतिशत उम्मीद है।
एमएसपी पिछले कई दशकों से किसानों की सबसे जरूरी मांग रही है। दरअसल किसानों की कड़ी मेहनत से तैयार किए गए उत्पादों वैसे केवल 4 से 6% उत्पादों को ही घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है, शेष 94 से 96% किसानों का उत्पाद लागत से भी कम कीमत पर बिकता है अथवा लूटा जाता है। किसानों की बदहाली का यह एक प्रमुख कारण है।
इसी एक-सूत्रीय मांग को लेकर 2022 के अंतिम महीनों में देश के 223 किसान संगठनों ने मिलकर सर्वसम्मति से देश के प्रत्येक किसान के लिए तथा प्रत्येक फसल के लिए "न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी किसान मोर्चा बनाया है"। किसानों के लिए लगातार कई दशकों से निस्वार्थ भाव से जुटे हुए वरिष्ठ किसान नेता बीएम सिंह को इसका अध्यक्ष चुना गया है। हाल के किसान आंदोलन में अन्य किसान नेताओं के साथ भले ही उनके कुछ अंतर्विरोध रहे हों, किंतु किसानों के प्रति उनकी निष्ठा सदैव असंदिग्ध रही है।
2023 में किसानों के लिए आशा की पहली किरण यहां दिखाई दे रही है। किंतु केवल मोर्चा बनने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। अब अपनी इस जरूरी मांग को हासिल करने के लिए सभी किसानों और किसान संगठनों को अपने सारे अंतर्विरोधों को दरकिनार कर आगे आना होगा, एकजुट होना होगा। अभी नहीं तो कभी नहीं। अब बिना खुद के मरे स्वर्ग नहीं मिलने वाला। हमें स्पष्ट रूप से यह तय करना होगा कि एमएसपी नहीं तो वोट नहीं । नारा भी दिया गया है "गांव गांव एमएसपी, घर-घर एमएसपी" तथा "फसल हमारी भाव तुम्हारा नहीं चलेगा" नहीं चलेगा आदि । अब नारों और और जुमलों से आगे जाकर यह साबित करना होगा कि अगर सत्ता चाहिए तो आपको सबसे पहले देश के किसान संगठनों के साथ बैठकर किसानों के लिए लाभकारी "न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी कानून" बनाना होगा। राजनीतिक पार्टियों को भी अब समझना ही होगा कि आगे 2023 में विधानसभा और संसद का रास्ता किसानों की 'एमएसपी' से होकर गुजरता है।
डॉ राजाराम त्रिपाठी
राष्ट्रीय संयोजक : अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा)
तथा
राष्ट्रीय प्रवक्ता : एमएसपी गारंटी किसान मोर्चा