समय भेजता रहा चिट्ठियाँ
मुझको, तुमको
और सभी को
हम ही खुले लिफाफे पाकर
किंकर्तव्यविमूढ हो गये !
घटनाओं की व्यथा-कथाएँ
आती रहीं
सदा छन-छन कर
और अघोषित अनुशासन की
मिलीं सूचनाएँ
भी तनकर
उठतीं रहीं उँगलियाँ जिन पर
नंगेपन के
आरोपों की
सभा-बहिष्कृत होने पर भी
वे आसन-आरूढ़ हो गये !
कानों-कान उड़ी अफवाहें
पहुँचीं जाने
कहाँ-कहाँ तक
सड़कों पर दुर्लभ खामोशी
पड़ी हुई
घबराई भौचक
सहमे अक्षर जोड़-जोड़ कर
जिन शब्दों को
अर्थ दिये थे
सब अनबूझ पहेली बनकर
कैसे इतने गूढ़ हो गये !
पढ़ना तो है दूर, हमीं ने
देखे नहीं
कभी संबोधन
परम्पराएँ माँग रही हैं
कबसे परिष्कार
परिशोधन
आदर्शों के मूल्य, मान्यताएँ जो
छाती से
चिपकी हैं
उन्हें परखना है पहले ही
चाहे कितने रूढ़ हो गये !
--जगदीश पंकज