लघुकथा "डकार"
मीरा ने देखा,एक दुबली-पतली बूढ़ी अम्मा दरवाजे पर हाथ फैलाए खड़ी है
भूख से बिलबिलाती बूढ़ी अम्मा ने आलीशान कोठियों के कई दरवाजों पर कुछ खाने को देने लिए गुहार लगाई पर उसे प्रताड़ना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। वह चलते-चलते बहुत थक गई थी। भूख भी बढ़ती जा रही थी। उसने सामने एक छोटा-सा पुराना घर देखा। दरवाजे पर जा कर उसने खाने के लिए कुछ माँगा।
मीरा ने देखा,एक दुबली-पतली बूढ़ी अम्मा दरवाजे पर हाथ फैलाए खड़ी है। उसके रूखे-सूखे उदास चेहरे को देख मीरा करुणा से भर गई। उसने अपने हिस्से की बची हुई दो रोटी और थोड़ी -सी बाथू की सब्जी ला कर भूखी अम्मा के हाथों पर रख दी। रोटी का स्पर्श बूढ़ी अम्मा को जन्नत का जैसा सुख दे रहा था । वह मीरा को ढ़ेरों आशीर्वाद देती हुई धीमे-धीमे कदमों से आगे बढ़ती चली गई। कुछ समय पश्चात उसे एक डकार आई जो भोजन के बाद तृप्ति की डकार जैसी लग रही थी।
- ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'