सरकार , मंत्री , सासंद और विधायक किसी काबिल नहीं फिर विपक्ष की औकात क्या, हिम्मत नहीं रखी तो मरना तय
अभी इसी सरकार इसी तंत्र की मदद से लड़ाई लड़नी है। हम खुद को आज बदल लें, यकीनन सबका आने वाला कल बदलेगा।
मुझे अब सरकार पर गुस्सा नहीं आता। विधायक मंत्री भी इस काबिल नहीं लगते कि उन्हें कुछ कहा जाए। सत्ता से बाहर राजनीतिक दलों से तो ज़रा भी शिकायत नहीं। मुझे नहीं लगता कि इनमें से किसी से भी ज्यादा संवेदना की उम्मीद करनी भी चाहिए। कोविड काल से पहले इन सब पर बहुत गुस्सा आता था, अब नहीं आता।
इसके पीछे मेरे अपने तर्क हैं। मैं समाज को बहुत करीब से देख रहा हूं। आस पड़ोस में कोई बुजुर्ग मरता है। लोग अपनी खिड़कियां दरवाजे बंद कर लेते हैं। ऐसा जताते हैं कि उन्हें पता ही नहीं। घर वाले किसी तरह खींचखाच के शव को एम्बुलेंस तक पहुंचाते हैं। एम्बुलेंस के जाते ही घर वालों की आंखों में दुख के आंसू होते हैं। खिड़कियां दरवाजे अब भी नहीं खुलते। कोई यह कोशिश नहीं करता कि डबल मास्क लगाकर , सुरक्षित रहते हुए साथ खड़े हो जाएं। कल किसी ने चिट्ठी भेजी। एक वरिष्ठ पत्रकार के बारे में शिकायत थी। उन्होंने अपने किरायेदार को कोविड होने पर घर से बाहर निकाल दिया।
हम शिकायत करते हैं कि कोई दवाएं और सिलेंडर ब्लैक कर रहा है। कहते हैं कि उनकी आत्मा मर गई। पर गौर करिए क्या आप की आत्मा जिंदा है, अगर हां तो क्या कर रहे हैं आप अपनों के लिए और क्या कर सकते हैं, गैरों के लिए भी। क्या बगल वाले घर के बीमारों के लिए आप ने कुछ किया है। क्या उनकी दवा और खाने के इंतजाम के लिए आप कुछ कर रहे हैं। काफी लोग कर रहे होंगे लेकिन बहुत से लोग सिर्फ दिखावा कर रहे होंगे। मुझे दिखाई पड़ते हैं इर्द गिर्द ऐसे ही संवेदनहीन लोग। जब समाज भरा हो ऐसे लोगों से तो उन्हें नियंत्रित करने वाला तंत्र कैसे मानवीय हो सकता है। ऐसे ही लोगों के चुनाव से आते हैं हमारे नेता। पक्ष हो या विपक्ष। सबका डी एन ए एक ही है। ब्यूरोक्रेट भी इन्हीं में शामिल हैं। उनका अलग स्वैग है। वो साहब हैं और यह समाज ही उनसे सवाल न कर के उन्हें साहेब बनाए रखता है। किसी की कोई जवाबदेही नहीं होती।
तो साहब बहुत हो गई नेगेटिव बातें। याद करिए अपनी उस महान संस्कृति को जो किसी काल खंड में शायद रही होगी और आज हम सब उसके झूठे ध्वजावाहक हैं। झूठ छोड़िए, मृत्यु के भय से निकलिए। वो तो आनी ही है। पर उसके आने से पहले कम से कम अब यह समझिए कि आप क्यों आए थे इस दुनिया में ? कितना सार्थक रहा आप का आना। आप डर रहे हैं कि आप ने बहुत कुछ अब भी नहीं भोगा या सोच रहे हैं कि मैंने आखिर इस कायनात को क्या दिया। यह महामारी किसी एक के बस की नहीं। विषाणु रक्तबीज की तरह खुद को फैला रहा है। आप को उससे लड़ने वाला तंत्र भी उतना ही विशाल बनाना होगा। वो बनेगा हमारे आप के हाथ जोड़ने से साथ खड़े होने से। एक दूसरे की मदद करने से। यह सही है कि सरकारें जिम्मेदार होती हैं। उनसे उस वक्त बात करिएगा, जब वोट देने का वक्त आए। अभी इसी सरकार इसी तंत्र की मदद से लड़ाई लड़नी है। हम खुद को आज बदल लें, यकीनन सबका आने वाला कल बदलेगा।
सुधीर मिश्र