धर्म की चाश्नी में झूठ की जलेबी तैयार है
गरीब लोकतांत्रिक देशों की जनता और सरकारों के भी अजब ढंग होते हैं।
गरीब लोकतांत्रिक देशों की जनता और सरकारों के भी अजब ढंग होते हैं। गरीबी झेलते झेलते और संसाधन प्राप्ति की कोशिशें करते करते आदमी के अंदर लालच, खुदगर्जी और एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ पैदा हो जाती है। दूसरी ओर इन गरीब देशों की सरकारों की स्थिति भी अजीब होती है। सरकारें जनप्रतिनिधियों द्वारा बनाई जाती हैं और जनप्रतिनिधि जनता के बीच से ही जनता द्वारा चुने जाते हैं। अब यह अनुमान लगाना आसान हो जाता है कि जनता जैसा ही उसका प्रतिनिधि चुना जाएगा। जो लालच और एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ जनता में होती है वैसे ही लक्षण उनके प्रतिनिधियों में पाए जाते हैं।
सरकार में आने के बाद जनप्रतिनिधियों में यह लक्षण तो मौजूद होते ही हैं साथ ही एक और दबाव से उनका वास्ता पड़ता है वह है अंतर्राष्ट्रीय माफियाओं को दबाव। यहां से खेल शुरू होता है जनता के साथ छल कपट, और भ्रष्टाचार के एक बड़े प्रारूप का। दुनिया के बड़े माफिया देशों ने विश्व बैंक और आईएमएफ के नाम से दो ऐसे जाल बुन रखे हैं जिसमें आराम से गरीब देश फंसते चले जाते हैं। यदि कोई देश अपनी मर्जी से इनमें नहीं फंसता तो ताकतवर देशों का दबाव उन्हें यह करने पर मजबूर कर देता है। गरीब देशों की सरकार चला रहे नेताओं को पहले तो लालच देकर भ्रष्टाचार की तरफ आकर्षित कर दिया जाता है और यदि कोई इतना ईमानदार निकलता है तो उसे डरा धमकाकर या सरकार से बेदखल कराने का खौफ दिखा दिया जाता है। और अगर फिर भी कोई बात नहीं मानता तो उससे किसी देश युद्ध लड़ा दिया जाता है।
कुल मिलाकर उसे अपने चंगुल में फंसा लिया जाता है। ये सब खेल खेले जाते हैं विभिन्न् योजनाओं के बहाने कर्ज मुहैया कराने का जिसके बदले देश के संसाधन और उसकी संप्रभुता को हथियाने की कोशिश की जाती है तथा देश में लूट का बाजार गर्म कर उसकी दौलत को बाहर ट्रांसफर कर दिया जाता है। देश के नेताओं को भ्रष्टाचार का मौका मिलता है और उनकी कमाई दौलत स्विस बैंक में जमा कर दी जाती है जिसके मालिक भी यही माफिया देश बने रहते हैं। इतना ही खेल नहीं खेला जाता बल्कि अपने मतलब की सरकारों और नेताओं द्वारा जनता को लोकलुभावन वायदे कराकर उन्हें लोकप्रिय बना दिया जाता है और इन लोकलुभावन वायदों को पूरा करने के लिए फिर और कर्ज दे दिया जाता है। गरीब देशों की जनता इन वायदों में ही अपना भविष्य ढूंढती है और खुश हो जाती है। सरकारें और कर्ज लेने के लिए टैक्स लगाती जाती हैं जिससे कर्ज देने वाले समझ लें कि उनका पैसा वापस मिल जाएगा। अफ्रीका और ऐशिया के गरीब देशों की हालत इस मामले में बहुत ज्यादा खराब है।
भारत में भी तीन दशकों से यही खेल खेला जा रहा है। ऐसा नहीं है कि इसकी शुरुआत मोदी सरकार से हुई है बल्कि इसकी शुरुआत तो डाक्टर मनमोहन सिंह के वित्त् मंत्री बनने के साथ शुरू हो गयी थी लेकिन कांग्रेस और दूसरी सरकारों ने इसमें ज्यादा तेजी नहीं दिखाई थी जितनी तेजी मोदी सरकार ने दिखाई है। यह समझिए कि मोदी सरकार इस खेल को फाइनल करने में लगी है। भाजपा सरकारें झूठ की मिठाई धर्म की चाश्नी में बनाकर इतनी खूबसूरती से लोगों को खिला रही हैं कि जब तक इसका मिठास गले तक पहुंचेगा तब तक जनता सिर्फ इसके दुष्परिणामों को भुगत रही होगी। भाजपा सरकार धार्मिक बहसों के पीछे जितनी तेजी से निजीकरण कर रही है उसे खुद इतना यकीन नहीं है कि कब सत्ता से बाहर हो जाना होगा।
भाजपा नेता अगले पचास साल तक सत्ता पर काबिज रहने की घोषणा तो करते रहे हैं लेकिन उनकी तेजी बता रही है कि उन्हें इतनी अवधि तक सत्ता में बने रहने पर खुद भी विश्वास नहीं है। मोदी जी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि हम तो फकीर हैं झोला उठाकर चल पड़ेंगे। अंतर्राष्ट्रीय माफियाओं के दबाव में ही ज्यादातर सरकारी नौकरियों को ठेके पर देने का काम जारी है जिससे की सरकारों पर दबाव कम से कम किया जा सके। सेना में "अग्निवीर" योजना भी इसी दबाव का हिस्सा है।
सरकारों पर वेतन आदि का दबाव कम करके उसके पैसे को अंतर्राष्ट्रीय माफिया अपने मतलब के पूंजीपतियों को बतौर बड़े बड़े ऋण दिला देते हैं जो कभी वापस नहीं होते। हमारे देश में पूंजीपतियों को दिया गया बैंक लोन और फिर उन पर कोई पकड़ ना होना इसी योजना का हिस्सा है। भारत का लोकतंत्र विपक्षहीन होता जा रहा है और जो भी आवाज उठ रही है उसे सरकार दबाने पर लगी हुई है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो भारत का लोकतंत्र एक इतिहास ही बन जाएगा। जनता को धर्म का काला चश्मा उतार कर होश में आना होगा और अगर जनता धर्म की चाश्नी को ऐसे ही चाटती रही तो उसे बहुत गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।