अफगानिस्तान की तालिबान क्रान्ति का सच
तालिबान चुनाव लड़कर सरकार बना लेते तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता! अब यह साफ हो चुका है कि तालिबान अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और कतर के कठपुतली के तौर पर काबुल में बैठाये गये हैं।
कल जेएनयू से पढ़े-लिखे जहीन बुजुर्ग कम्युनिस्ट पत्रकार ने तालिबानी तख्तापलट को क्रान्ति लिखा। परोक्ष रूप से तालिबान की तुलना चीन में माओ के नेतृत्व में हुई क्रान्ति से की। इमरान खान पाकिस्तानी संसद में तालिबान के तख्तापलट को इंकलाब बता चुके हैं। लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करके सत्ता पर कब्जा जमाने वाली क्रान्ति पाकिस्तान में इतनी बार हो चुकी है कि इमरान खान द्वारा इसे क्रान्ति कहना हैरान नहीं करता। लेकिन भारत के लाल किले के बाज अगर इसे क्रान्ति कह रहे हैं तो यह चिन्ताजनक है।
सबसे पहले तो यह सफेद झूठ है कि तालिबान ने अमेरिका को हराकर अफगानिस्तान पर कब्जा किया है। अमेरिका ने चरणबद्ध और सुनियोजित तरीके से अफगानिस्तान से अपनी सेना हटायी है। उन्हें जब तक जरूरत थी काबुल हवाईअड्डे पर उनका कब्जा रहा। ध्यान दें, जब पूरे अफगानिस्तान पर तालिबान का कथित कब्जा हो चुका था, उसके दो हफ्ते बाद तक काबुल हवाईअड्डे पर अमेरिका का कब्जा था। अमेरिका ने कल कहा कि अब काबुल हवाईअड्डा उनके नियंत्रण में नहीं है।
अमेरिका पिछले एक साल से तालिबान से बातचीत कर रहा था। अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा समझौता हुआ है। उस समझौते का विस्तृत ब्योरा नहीं पता लेकिन इतना पता है कि काबुल का हवाईअड्डा तुर्की के नियंत्रण में देने की भी बात चल रही थी। कल तालिबान ने कहा है कि तीन दिन में काबुल हवाईअड्डे से अंतरराष्ट्रीय उड़ान शुरू हो जाएगी और उसके लिए उसने कतर और तुर्की से तकनीकी सहायता माँगी है। जाहिर है कि तालिबान के पास बन्दूक चलाने वाले हैं लेकिन इंजीनियर दूसरे मुल्कों से माँगने पड़ रहे हैं।
जो लोग अमेरिका की पराजय का नरेटिव गढ़ रहे हैं वो या तो भोले हैं या तो बतोले हैं या अक्ल से झोले हैं। तालिबान ने जिसे अपदस्थ किया है वो अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई अशरफ गनी सरकार है। यह आरोप है कि गनी सरकार जिस चुनाव में चुनी गयी थी वो पारदर्शी चुनाव नहीं थे। यह बहुत जायज माँग होती कि अमेरिकी सेना के जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी में निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराये जाएँ। तालिबान ने ऐसी कोई माँग नहीं की। तालिबान को इस तरह के लोकतंत्र में यकीन नहीं है। तालिबान की कृपा से यह साफ हुआ कि दुनिया में बहुत से लोगों द्वारा दी जाने वाली लोकतंत्र की दुहाई चालाक मौकापरस्ती भर है।
तालिबान के कब्जे से किसी को इस्लामी अमीरात की किक मिल रही है तो किसी को कम्युनिस्ट क्रान्ति की। अफसोस ऐसे ज्यादातर लोग नाजीवादी क्रान्तियों के विरोधी रहे हैं। अफसोस यह है कि नाजीवादियों का विरोध करने वाले यह कभी नहीं जान पाये कि दुनिया के कट्टर मुसलमानों की तरह भारतीय मुसलमानों का एक तबका यहूदियों से वैसी ही नस्ली नफरत करता है जैसे नाजी करते रहे होंगे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया में कई राजनीतिक विचारधाराएँ हैं। लोकतंत्र उन कई में एक है। लोकतंत्र की अपनी सीमाएँ हैं, खूबियाँ हैं, खामियाँ हैं। चीन और ईरान में लोकतंत्र नहीं हैं। चीन में एक पार्टी की तानाशाही है। ईरान में मजहबी शूरा के नीचे सरकार चलती है। कुछ देशों में बादशाहत है। कुछ देशों में सैन्य तानाशाही है। किताबी मॉडलों को भूल जाएँ तो मोटे तौर पर ये चार-पाँच जमीनी राजनीतिक मॉडल इस वक्त दुनिया में मौजूद हैं। अफसोस है कि जो लोग तानाशाही या फासीवाद जैसे लफ्जों का आजीवन इस्तेमाल करके दुकान चलाते रहे उनकी भी लोकतंत्र में श्रद्धा सुविधाभर ही है।
तालिबान चुनाव लड़कर सरकार बना लेते तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता! अब यह साफ हो चुका है कि तालिबान अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और कतर के कठपुतली के तौर पर काबुल में बैठाये गये हैं। इस्लामी कठपुतलियों का इतिहास ऐसा रहा है कि वो देर-सबेर खुद को खलीफा समझने लगती हैं। तालिबानी निजाम किस तरफ जाएगा, यह केवल वक्त बता सकता है लेकिन उसने कोई क्रान्ति नहीं की है। तालिबान, इमरान खान और हिन्दुस्तानी अहमकान के अलावा जो भी यह कह रहा है, उसके पृष्ठभूमि की जाँच जरूर करें।
बौद्धिक हनक और सनक में लोगों को मजा आने लगता है तो उनपर किसी तर्क और तथ्य का असर नहीं होता। इसलिए तालिबानी तख्तापलट में किक लेने वाले केवल किक ले रहे हैं क्योंकि वो सुरक्षित जगहों पर हैं। पहले भी लिखा था, फिर से लिख रहा हूँ, तालिबान की इतनी हैसियत नहीं है कि वो अपने किसी पड़ोसी मुल्क में बड़ी खलल पैदा कर सकें। अगर उन्होंने अफगानिस्तान से बाहर पर निकाले तो वो कतर दिये जाएँगे। यह अलग बात है कि उनके झाँसे में आने वाले कुछ नौजवान बेमौत मारे जाएँगे। जिस तरह ब्रिटेन और यूरोप के कई किशोर-किशोरियाँ लोकतांत्रिक मुल्कों में रहते हुए इस्लामिक स्टेट के इस्लामी अमीरात के निर्माण के लिए अपना देश छोड़कर इराक-सीरिया इत्यादि देशों में चले गये। ज्यादातर मारे गये।
जहाँ कहीं भी इस्लामी कट्टरपंथी इस्लामी अमीरात या खिलाफत बना रहे हैं वहाँ पर मुसलमान मारे जा रहे हैं। बाकी दुनिया के मुसलमानों का एक तबका उनको देखकर भ्रमित रहता है और वो अपने आसपास हिंसक गतिविधियों में लिप्त होकर मारा जाता है। इस पूरी कवायद का फल यही होना है कि मासूम या भ्रमित लोग मारे जाएँगे। लोकतंत्र शान्ति का रास्ता है। खून-खराबे के जरिये सत्ता-परिवर्तन के सारे रास्ते दुनिया आजमा चुकी है और उनका हश्र देख चुकी है। किसी जानकार ने सही कहा है, लोकतंत्र बुरा है लेकिन सत्ता चलाने का इससे अच्छा रास्ता अभी मिला नहीं है। जरूरत है लोकतंत्र की कमियों को दूर करके उसे बेहतर बनाने की। किसी दूसरे मुल्क में हो रही हिंसा में किक लेने से इतना ही पता चलता है कि इस शय के अन्दर से कबायली प्रवृत्तियाँ अभी मिटी नहीं हैं।
- रंगनाथ सिंह, पूर्व पत्रकार ( बीबीसी )
पोस्ट - फेसबुक से साभार