'बाहरी' का जाल, आंतरिक सुरक्षा का सवाल

बीते कुछ समय में हमारी उपलब्धियों का ग्राफ जिस तेजी से ऊपर चढ़ा है, बीत रहा साल कई क्षेत्रों में उसी सिलसिले को रफ्तार देने वाला वर्ष साबित हुआ है

Update: 2021-11-21 06:44 GMT


उपेंद्र राय, वरिष्ठ पत्रकार

साल 2021 अपने अवसान की ओर है और जल्द ही हम नए वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। बीते कुछ समय में हमारी उपलब्धियों का ग्राफ जिस तेजी से ऊपर चढ़ा है, बीत रहा साल कई क्षेत्रों में उसी सिलसिले को रफ्तार देने वाला वर्ष साबित हुआ है। लेकिन कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां नई चिंताएं, नई चुनौतियां, नए सवाल भी खड़े हुए हैं, जिनका निदान नहीं किया गया तो यह विकास पथ पर कुलांचे भर रहे देश के लिए स्पीड ब्रेकर साबित हो सकता है। खासकर आंतरिक सुरक्षा और उसमें बाहरी कारकों की भूमिका ऐसे ही विषय हैं।

अफगानिस्तान में तालिबानी कब्जे के बाद जहां सामरिक हलचल तेज है, वहीं कश्मीर में भारत के लिए आशंकाएं सच साबित हो रही हैं। जाहिर तौर पर पाकिस्तान की भूमिका जगजाहिर है। वहीं बीते साल से चीन के साथ गतिरोध प्रतिदिन नया आयाम ले रहा है। ताजा मसला चीन का नया सीमा कानून और पूर्वोत्तर भारत में चरमपंथियों की हरकत है, जिसमें मणिपुर में हमारे 5 जवान शहीद हो गए। यह हमला चीनी शह की ओर इशारा करता है। आजादी का 50वां साल मनाने जा रहा बांग्लादेश का घटनाक्रम भी समूचे पूर्वी भारत के लिए चिंताजनक है। हां, गढ़चिरौली में 26 माओवादियों का ढेर होना आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर थोड़ी राहत भरी खबर है।

एक-एक कर आगे बढ़ेंगे तो इन सवालों की महत्ता और स्पष्ट हो सकेगी। कश्मीर को लेकर देश की उत्तरी सीमा वैसे भी हमारी प्राथमिकता में रही है और हाल-फिलहाल में अफगानिस्तान का ताजा सूरत-ए-हाल जुड़ जाने के कारण इसकी सुरक्षा का सवाल और बड़ा हो गया है। अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद बदले हालात से निबटने के लिए सक्रिय मोदी सरकार ने कई कूटनीतिक कदम उठाए हैं, जिसमें सबसे ताजा जोड़ दिल्ली डायलॉग का लगा है। यह भारत की मेजबानी में आठ देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की एक छत के नीचे हुए वार्ता थी जिसमें दो बातों पर खास जोर दिखा। पहला यह कि अफगानिस्तान की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करते हुए उसके अंदरूनी मामलों में किसी तरह का हस्तक्षेप न हो और दूसरा यह कि अफगानिस्तान को वैश्विक आतंकवाद की पनाहगाह न बनने दिया जाए। तालिबान का समर्थन कर रहे चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के लिए यह परोक्ष संदेश है। संयोग से यह दोनों ही देश भारत के बुलावे के बावजूद इस वार्ता से नदारद रहे। पाकिस्तान पहले भी इस मसले पर हुई दोनों बैठकों में शामिल नहीं हुआ था, जबकि चीन ने पिछली बैठकों में मौजूद रहने के बाद इस बार 'पूर्व-व्यस्तता' का हवाला देते हुए दूरी बना ली।

बैठक में भारत के अलावा रूस, ईरान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने अफगान संकट को लेकर अपनी चिंताएं साझा कीं। भारत के नजरिये से यह कवायद कई वजहों से भविष्य में राहत का सबब बन सकती है। सबसे गौर करने वाली बात यह है कि ऐसा पहली बार हुआ है जब केवल अफगानिस्तान के पड़ोसी देश ही नहीं, बल्कि सभी मध्य एशियाई देश एक मंच पर जुटे हैं। ऐसा करके अफगान मामले में भारत ने काफी हद तक अलग-थलग पड़ने के खतरे को दूर कर लिया है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि तालिबान ने अब तक अफगानिस्तान की जमीन को आतंक के लिए इस्तेमाल न होने देने, वहां की सरकार के समावेशी होने, अल्पसंख्यकों-महिलाओं-बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा जैसी भारत की चिंताओं पर उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं दी है। पाकिस्तान और चीन की शह के बीच तालिबान का यह रवैया भारत के राष्ट्रीय और सामरिक हितों के लिहाज से चिंताजनक बनता जा रहा था।

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से नब्बे के दशक की पुरानी यादें ताजा हुई हैं जब कश्मीर में पाकिस्तान से प्रायोजित और तालिबान से प्रेरित उग्रवाद चरम पर पहुंच गया था। घाटी ही नहीं, मैदानों में, मंदिरों और बाजारों में बम फूटा करते थे और अपहरण के बाद कंधार ले जाए गए यात्रियों से भरे विमान की सुरक्षा के बदले आतंकवादियों को रिहा करने की नौबत आई थी। हालांकि आज के मजबूत सुरक्षा तंत्र में इतने बड़े पैमाने पर घटनाओं का दोहराव संभव नहीं दिखता, लेकिन भौगोलिक परिस्थितियां बदली नहीं हैं जो हमारी सबसे बड़ी सामरिक चिंता की वजह भी है। भारतीय सेना का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और गिलगिट-बाल्टिस्तान क्षेत्र से सटी नियंत्रण रेखा पर तैनात है। यह वही इलाका है जहां चीन का महत्वाकांक्षी सीपेक प्रोजेक्ट गुजरता है। इसी तरह कश्मीर और लद्दाख के दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना ने डेरा डाल रखा है। पिछले दो दशक से अफगानिस्तान में 40 से ज्यादा मित्र देशों की सैन्य तैनाती और भारत की उन्नत होती जा रही सैन्य ताकत की वजह से यहां पाकिस्तान के लिए दूसरा 'करगिल' दोहराना असंभव हो गया था। अमेरिका और मित्र देशों की फौज के लौटने के साथ ही पाकिस्तान की राह का एक कांटा दूर हो गया है। नीम चढ़े करेले वाली बात यह है कि पिछली बार अमेरिका के कारण पीछे रह गया चीन भी इस बार पाकिस्तान को दुस्साहस के लिए उकसा सकता है।

चीनी सेना पहले से ही पूर्वी लद्दाख में मौजूद है और गलवान की हरकत के बाद से ही लगातार वास्तविक नियंत्रण रेखा को अशांत बनाने में जुटी हुई है। उसका नया लैंड बॉर्डर लॉ भी आग में घी डालने वाली हरकत जैसा है। कहने के लिए यह कानून चीन से सरहद साझा करने वाले सभी 14 देशों पर लागू होगा, लेकिन इससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत ही होगा। इस कानून से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी चीनी सेना के अधिकारों में जबर्दस्त इजाफा हो जाएगा लेकिन हमारे लिए सतर्क होने की बात यह है कि इसकी आड़ में चीन अपने विस्तारवादी एजेंडे को पूरा करने की साजिश रच सकता है। इस कानून को सहारा बनाकर चीन सरहदी क्षेत्रों में निर्माण की परियोजनाएं लागू करेगा, उन्हें पूरा करने के नाम पर वहां लोगों को बसाएगा और आगे चलकर उन क्षेत्रों पर अपने अधिकार का दावा करेगा। आज का शिनजियांग प्रांत पहले ईस्ट तुर्कमेनिस्तान का हिस्सा होता था, जिसे चीन ने माओ के शासनकाल में इसी तरीके से हड़पा था। अब जिनपिंग उस फ़ॉर्मूले को तिब्बत में आजमाने की फिराक में हैं।

उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ें तो वहां भी चीन संदिग्ध भूमिका में दिखता है। मणिपुर में असम राइफल्स के कमांडिंग अफसर विप्लव त्रिपाठी और उनकी पत्नी-बेटे की हत्या को अंजाम देने वाले विद्रोही गुट की चीन से निकटता सामने आ रही है। घात लगाकर किए गए इस हमले का जबरन वसूली और नशीले पदार्थों की तस्करी के दम पर सीमावर्ती इलाकों में चल रही समानांतर अर्थव्यस्था से कनेक्शन बताया जा रहा है। इस कारोबार में कई ऐसे चरमपंथी गुट शामिल हैं जो चीन को इस हद तक अपना मुख्य प्रायोजक मानते हैं कि उसके लिए भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाने में हर सीमा पार कर जाने के लिए तैयार दिखते हैं। हालांकि इस मामले में राहत की बात यह है कि मणिपुर को छोड़कर उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य अब शांति की राह पर चलकर विकास की मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं।

पूर्वी भारत का राज्य त्रिपुरा भी ऐसे ही हालात से दो-चार हो रहा है जहां पड़ोसी बांग्लादेश में लगी आग की तपिश महसूस हो रही है। त्रिपुरा देश के उन चुनिंदा राज्यों में रहा है जहां बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान भी सांप्रदायिक सौहार्द्र अक्षुण्ण रहा था। लेकिन बांग्लादेश में एक मंदिर पर हमले और उसके बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा ने त्रिपुरा को भी अपने चपेट में ले लिया। हालांकि इसकी वजह ये भी बताई गई है कि त्रिपुरा तीन तरफ से बांग्लादेश से घिरा है और वहां के करीब-करीब हर परिवार का कोई-न-कोई रिश्तेदार बांग्लादेश में रहता है। लेकिन गौर करने वाली बातें कुछ और भी हैं। त्रिपुरा में पहली बार विरोध-प्रदर्शन इतने लंबे समय तक हुए हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई ताकत इन्हें लगातार 'आग-पानी' देने का काम कर रही थी। यह भी दिलचस्प है कि इस बार भड़काऊ नारों के लिए हिंदी भाषा का इस्तेमाल किया गया, जो त्रिपुरा में कहीं नहीं बोली जाती।

त्रिपुरा की चिंगारी महाराष्ट्र तक भी पहुंची, लेकिन यहां महाराष्ट्र के जिक्र की ज्यादा बड़ी वजह गढ़चिरौली में मिली सफलता है जो इन तमाम कारकों के बीच खुली हवा के झोंके से कम नहीं है। 15 पुलिस कमांडो की शहादत के बदले की जवाबी कार्रवाई में महाराष्ट्र पुलिस के सी-60 दस्ते ने जिस तरह दो-तीन बड़े कमांडरों समेत 26 नक्सलियों को ढेर किया, उसने देश में माओवादियों के भविष्य को लेकर चर्चा को एक नया आयाम दे दिया है। सरकार की सख्ती के बाद देश में माओवादियों का दायरा पिछले एक दशक में 123 जिलों से घटकर 65 जिलों में सिमट गया है। छत्तीसगढ़ में बस्तर डिवीजन और महाराष्ट्र में गढ़चिरौली के कुछेक इलाकों को छोड़ दिया जाए तो पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड समेत अधिकांश मध्य भारत से अब नक्सली हमलों की इक्का-दुक्का वारदात ही सामने आती है।

ऐसे में कश्मीर और कुछ हद तक माओवादी गतिविधियों को छोड़ दिया जाए, तो शेष भारत किसी दूसरे बड़े आतंकी हमलों से महफूज रहा है। बेशक यह एक बड़ी उपलब्धि है और इसके लिए सैन्य बलों के साथ-साथ सरकार की भी तारीफ की जानी चाहिए।

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