बीते दिनों हुई एक चर्चा से मेरा मन व्यथित हो गया। उसके बाद कुछ लिखने से खुद को रोक नहीं पाया। सबसे पहले गर्व को ही लें जिसकी हर मौके-बेमौके जिक्र होती ही रहती है। हमारा देश गर्व करने में किसी से पीछे नहीं है बल्कि यहां थोक में गर्व की डिस्ट्रीब्यूटर शिप दी जाती है। वह चाहे धर्म का मसला हो, बेईमानी का हो, चोरी का हो या नैतिकता का, वैसे देश में नैतिकता केवल कहने भर के लिए शेष रह गयी है, राजनीति में तो कतई नहीं। फिर भी राजनेता नैतिकता, चरित्र ,ईमानदारी और आदर्श का ढिंढोरा पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जैसे इस सबका ठेका इन्होंने ही ले रखा है। यह हमारे देश की संस्कृति और विविधता की परिचायक है।
इसका नजारा वैसे तो आमतौर दैनंदिन जीवन में दिखाई देता ही रहता है, आपदा में तो इसके बखूबी दर्शन होते हैं। कारण आपदा का काल किसी कुंभ सरीखा होता है। कोरोना काल भी किसी आपदा से कम नहीं है। जहाँ राहत कोष के बारे में जानना बहुत बड़ा गुनाह है। इस काल में राहत के मामले में संत, महात्मा, पीठाधीश्वर, शंकराचार्य पता नहीं किस लोक में विचरण कर रहे थे। उनका इससे क्या वास्ता। इस काल ने तो प्रवचन पर ही ताला जड़ दिया। धर्म और धर्मगुरुओं का इन सब बातों से कोई लेना-देना नहीं। उनका तो मंदिर और मठों से ही वास्ता है। असल में यह तो बहुत छोटी बात है। राष्ट्र भक्तों और धर्माधिपतियों पर बेवजह यह तोहमत लगाने जैसी बात है। इनसे इसमें घपला-घोटाले की उम्मीद करना बेमानी तो है ही, राष्ट्र द्रोह के अपराध जैसा अक्षम्य कुकृत्य है।
सैनिक के बारे में ही लो, उसका कर्म कहें या दायित्व सीमा की रक्षा करना है। क्यों और कैसे, इस सवाल की उम्मीद उससे नहीं की जा सकती। यह उसका धर्म है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सेना में जाने और देश की रक्षा का एकाधिकार देश के किसान, गरीब, पिछड़े, वंचित सर्वहारा तबके के सपूतों का ही है। इसमें भागीदारी करने का देश के अभिजात्य, संपन्न, सामंत और राष्ट्र के नीति नियंताओं का कोई अधिकार नही है। यह विचार बार-बार जब कौंधता है जब सीमा पर शहीद सैनिकों के शव उनके घर लाये जाते हैं। तब देश को इस बात की जानकारी होती है कि यह शव किसी किसान, पिछड़े, गरीब ,कामगार के लाड़ले सपूत का है जिसने देश के लिए अपनी आहुति दे दी है। यह गर्व की बात नहीं है। यह गर्व केवल और केवल उन्हीं के हिस्से आता है। इससे सम्पन्न, सामंत, नीति नियंताओं और राजनीतिक के सपूतों का क्या लेना देना। वह तो बस यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं कि इसका बदला लेकर रहेंगे। एक के बदले दस सिर लेकर रहेंगे। देश की आन-बान-शान के लिए अपना सर्वस्व होम कर देंगे। लेकिन इसके दर्शन आज तक हुए हों, यह कभी देखने को नहीं मिला। न ऐसा कोई कानून बना कि देश के हर घर से एक नौजवान सेना में जायेगा। यह इस देश के सामाजिक न्याय का ज्वलंत उदाहरण है।
विडम्बना कहें या खासियत कि दुनिया का सबसे छोटा संविधान चीन का है जहां कोई भी अपराधी बचता नहीं है। जबकि दुनिया में
सबसे भारी भरकम संविधान हमारे देश भारत का है। कहा यह जाता है कि इसके बावजूद यहां कोई अपराधी फंसता ही नहीं है।
अब जरा सरकारी
सरकारी राशन की दुकान पर जमा भीड़ का नजारा देखिये। जहां हाथ में 20,000 का मोबाइल लेकर ,70,000 की बाइक पर बैठकर 2 रुपये किलो चावल लेने आते हैं ये गरीब कहलाने वाले लोग। सरकार के हिसाब से यह ही असली गरीब हैं।
यह तो विडम्बनाओं का देश है एक आध की बात दीगर है लेकिन असलियत यह है कि जहां हाथ मे 50,000 का फोन और चेहरे पर 10,000 का चश्मा लगाने वाली उन महिलाओं को देश की राजधानी दिल्ली मे बस का सफर फ्री कर दिया गया है। इस पर ही तो हम गर्व कर सकते हैं।
फिर एक और नजारा देखिए। यहां पर बैंक में जनधन खाते से पांच सौ रुपए निकालने के लिए पति सतर हजार की मोटरसाइकिल पर पत्नी को लाता है और पूछता है के अगले पैसे कब आयेंगे। यही तो हमारे देश की सुंदरता है।फिर भी कहते है के सरकार कुछ नहीं कर रही है।
जिस देश में नसबन्दी कराने वाले को सिर्फ़ 1500 ₹ मिलते हों और बच्चा पैदा होने पर 6000 ₹ मिलते हों तो जनसंख्या कैसे नियन्त्रित होगी।
एक बादशाह ने गधों को क़तार में चलता देखा तो धोबी से पूछा, "ये कैसे सीधे चलते है..?"
धोबी ने जवाब दिया, "जो लाइन तोड़ता है उसे मैं सज़ा देता हूँ, बस इसलिये ये सीधे चलते हैं।"
बादशाह बोला, "मेरे मुल्क में अमन क़ायम कर सकते हो..?"
धोबी ने हामी भर ली।
धोबी शहर आया तो बादशाह ने उसे मुन्सिफ बना दिया, और एक चोर का मुक़दमा आ गया, धोबी ने कहा चोर का हाथ काट दो।
जल्लाद ने वज़ीर की तरफ देखा और धोबी के कान में
बोला, "ये वज़ीर साहब का ख़ास आदमी है।"
धोबी ने दोबारा कहा इसका हाथ काट दो, तो वज़ीर ने सरगोशी की कि ये अपना आदमी है ख़याल करो।
इस बार धोबी ने कहा, "चोर का हाथ और वज़ीर की ज़ुबान दोनों काट दो, और एक फैसले से ही मुल्क में अमन क़ायम हो गया…।
बिलकुल इसी न्याय की जरुरत हमारे देश को है ।
सरपंच की सैलरी 3000 से लेकर 5000 तक होती है
समझ में नहीं आता है 2 साल बाद स्कॉर्पियो फॉर्च्यूनर कहाँ से ले आते हैं......? सभी जनप्रतिनिधियों से सम्बन्धित है यह कहानी। यह है हमारे भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नजारा । इस पर हमें गर्व है और रहेगा। यही हमारी एकता का प्रतीक है। गर्व है कि इसका हमने समय समय पर प्रमाण दिया है और दे भी रहे हैं। यही भारत है। आत्मनिर्भर भारत।