जब राजनीतिक सिस्टम ही भ्रष्ट है तो कैसे उस सिस्टम के लोग सामाजिक न्याय दे सकते हैं?
सारिका सिंह के फेसबुक वाल से
ये सिस्टम रोज़ नए मुद्दे पैदा कर सकता है, उसे सस्टेन भी कर सकता है, उसे भटका भी सकता है और उससे लोगों को बांधे भी रख सकता है। उसके पास पैसा, मीडिया, मानव संसाधन सब कुछ है।
हम दिन-रात अपने पोस्ट्स में बात करते हैं सामाजिक न्याय की। ऐसे पोस्ट्स लिखने वालों को खूब फ़ॉलो करते हैं। लेकिन वे लोग भी इसी सिस्टम के सहारे सस्टेन कर रहे हैं। वे इसके ख़िलाफ़ नहीं हैं। कोई राजनीतिक सिस्टम नहीं चाहता कि उसके लोगों में तर्कशक्ति का विकास हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण बने, वे अच्छी पढ़ाई कर अच्छी नौकरियों की उम्मीद करें। ऐसे ही सिस्टम में भावनाओं के सहारे नेता बनते हैं, हीरो बनते हैं और बनती हैं उनकी भेड़ें यानी भीड़।
इसलिए हर दिन ऐसा मुद्दा खड़ा होता है जो भावनाओं के सहारे लड़ा जा रहा है। इसलिए हर दिन ऐसे डिजिटल 'ऐक्टिविस्ट' भी खड़े हो रहे हैं और भावनाओं के सहारे ही लड़ रहे हैं।
इस राजनीतिक सिस्टम में कोई चेक एंड बैलेन्स नहीं है। मार्केटिंग के लिए, चुनाव लड़ने के लिए जो पैसा देगा, फिर हित तो उसी का देखा जाएगा। उनका हित अगर नहीं देखा जाएगा तो समर्थन और पैसा कहीं और शिफ़्ट हो जाएगा। अब ये पैसा कितना है या किसका है, ये तो किसी को नहीं पता। क्योंकि सब कुछ सीक्रेट है। कोई आरटीआई नहीं, कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं। इलेक्टोरल बॉंड हैं बस। क्या वोट देने से पहले ये सवाल हमें कभी भी सूझता है? एक वकील दोस्त ने सामाजिक न्याय पर बात करते हुए न्यायपालिका और उसके collegium system पर सवाल उठाया कि कोई पार्टी इसे सुधारना नहीं चाहती। लेकिन कोई भ्रष्ट सिस्टम किसी और ग़लत सिस्टम को क्यों सुधारना चाहेगा? सब एक दूसरे के पूरक हैं।
आप कितना भी बड़ा गुट बना लें, आपके पास इतने संसाधन ही नहीं हैं कि आप सोच-समझ कर तैयार किए गए मुद्दों पर अपना पक्ष सस्टेन कर पाएँगे। वो संसाधन सिर्फ़ और सिर्फ़ जागरूकता है, विचार है, बौद्धिकता है, जानकारी है जिसे साज़िशन रोक दिया गया है। अपने को महान बनाने की होड़ में लगे लोग भी उसी पक्ष में खड़े मालूम होते हैं जिससे लड़ने का वे दावा करते हैं। लोगों के पास बस एक झुनझुना है- 'टैग, ट्रोल, टार्गेट और ट्रेंड'