बीजेपी के नाव से उतर क्यों रहे हैं मंत्री-विधायक?
जिन नेताओं ने बीजेपी छोड़ी है उनका कहना है कि अपनी पार्टी के भीतर दलितों, पिछड़ों, वंचितों के लिए कुछ करने की उम्मीद में वे आए थे
बेशकीमती सवाल है कि नेता क्यों छोड़ रहे हैं बीजेपी? पहले बीजेपी नेताओं ने जाने वाले नेताओं के लिए आगाह करने वाले शब्द बोले। कहा- डूबती नाव में जाकर अपना नुकसान ना करें। मिल बैठकर बात करें। बात बनी नहीं तो अब बीजेपी नेता कह रहे हैं कि पांच साल तक सत्ता की मलाई खाने के बाद बीजेपी छोड़ने वाले नेताओं को पिछड़े-दलित याद आ रहे हैं।
बीजेपी पोषित मीडिया कह रही है कि चुनावी भगदड़ शुरू हो चुकी है। ऐसा कहकर योगी सरकार से अब तक 3 केंद्रीय मंत्रियों और 12 विधायकों के इस्तीफे को चुनावी दल-बदल की सामान्य प्रक्रिया बताने की कोशिश गोदी मीडिया कर रहा है। वास्तव में यह भगदड़ नहीं, वह घटना है जो 'खदेड़ा' का आधार बनने वाली है। यूपी की सियासत में 'खदेड़ा' का मतलब बीजेपी को सत्ता से खदेड़ देने का संकल्प है।
जिन नेताओं ने बीजेपी छोड़ी है उनका कहना है कि अपनी पार्टी के भीतर दलितों, पिछड़ों, वंचितों के लिए कुछ करने की उम्मीद में वे आए थे। आवाज़ भी उठाई। लेकिन, उनकी बात नहीं सुनी गई। मतलब यह कि पिछड़ों के हित में वे पार्टी छोड़ रहे हैं।
ये सभी तीन तरह के तर्कों को देखें तो जो एक दम स्पष्ट बात है वह यह है कि बीजेपी छोड़ने वाले नेता कम से कम अपनी टिकट कटने के डर से तो पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं। यह नहीं माना जा सकता कि स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह और धर्म सिंह जैसे कैबिनेट मंत्रियों या फिर अन्य 9 विधायकों की टिकट काटी जा रही थी। संभव है इनमें एक-दो ऐसे लोग हों भी जिनके टिकट कट सकते थे। मगर, दावे से नहीं कह सकते कि ऐसा ही होने वाला था। फिर क्या वजह है? क्यों बीजेपी छोड़ने की स्पर्धा दिखने लगी है?
शाह-योगी ने ओबीसी नेताओं को भ्रम में डाल दिया
29 अक्टूबर 2021 को लखनऊ की रैली में अमित शाह ने कहा कि मोदी को फिर से एक बार 2024 में पीएम बनाना है तो 2022 में योगी को एक बार फिर यूपी का सीएम बनाना है। तभी देश का विकास आगे बढ़ेगा। 2017 में ओबीसी वर्ग ने बीजेपी का पूरा साथ दिया। तब कहा गया था कि डबल इंजन की सरकार होगी तो सबका विकास होगा। अब ओबीसी जो प्रदेश में 42 प्रतिशत हैं वे कन्फ्यूज हो गये कि डबल इंजन सरकार का नारा मोदी-योगी की युगलबंदी के तौर पर शर्त में क्यों बदल गया? थोपा गया योगी नेतृत्व दोबारा थोप दिया गया जानकर पिछड़े, दलित, वंचित सबमें बेचैनी बढ़ गयी।
8 जनवरी को 2022 को योगी आदित्यनाथ ने 80 फीसदी साथ होने और 20 फीसदी खिलाफ होने का नारा दे दिया तो इसके भी मायने लगाए जाने लगे। इसमें हिन्दू-मुस्लिम का संदेश तो पढ़ा गया लेकिन पिछड़े, दलित और वंचित तबके के लिए इसके मायने अधिक स्पष्टता से नहीं पढ़े जा सके।
हिन्दुत्व की राह से मायूस हुए पिछड़े-दलित-वंचित!
योगी आदित्यनाथ के लिए मथुरा और अयोध्या के रूप में जब सुरक्षित सीट खोजी जाने लगी तो यह स्पष्ट हो गया कि बीजेपी ने ओबीसी, दलित और पिछड़ों का जितना इस्तेमाल करना था कर लिया और बीजेपी अब आगे का रास्ता हिन्दुत्व की राह में देख रही है। अब यह तय हो चुका है कि योगी आदित्यनाथ अयोध्या से चुनाव लड़ने जा रहे हैं। और, यह तय होते-होते यह भी तय हो चुका है कि हिन्दुत्व की राह चुनने का खामियाजा भुगतने के लिए भी बीजेपी को तैयार रहना होगा। एक के बाद एक हो रहे इस्तीफे इसी हिन्दुत्व की राह का विरोध है।
हालांकि बीजेपी छोड़ रहे किसी नेता ने यह नहीं कहा है कि वह बीजेपी के हिन्दुत्व की राह को लेकर नाराज़ हैं लेकिन उन्होंने यह जरूर कहा है कि पिछड़े, दलितों और वंचितों के लिए जिस उम्मीद के साथ वे बीजेपी में जुड़े थे वह उम्मीद पूरी नहीं हो सकी। आम तौर पर नाराज़गी अपने को केंद्र में रखकर व्यक्त की जाती है दूसरों की चुनी हुई राह पर चुप ही रहा जाता है।
रूठे नेताओं को मनाने क्यों दिल से नहीं उतरे बीजेपी नेता?
बीजेपी छोड़ रहे नेताओं को देखें तो ये लोग वही हैं जिन्हें बहुत मशक्कत के साथ 2017 के चुनाव की तैयारी करते हुए अमित शाह और केशव प्रसाद मौर्य की जोड़ी ने अपनी पार्टी से जोड़ा था। 2022 में भी यही दोनों इस घटना पर प्रतिक्रिया देते दिखे हैं। इनकी भाषा में बीजेपी छोड़ने वाले अपने साथियों के लिए आगाह करने का भाव है। मगर, सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्यों अमित शाह-केशव प्रसाद मौर्य इन नेताओं को रोक नहीं पा रहे हैं? इनकी क्षमता क्या घट गयी है?
यह बीजेपी के भीतर का अंदरूनी संघर्ष है जो अमित शाह और केशव प्रसाद मौर्य को अपने से अलग हो रहे नेताओं को बनाए रखने के लिए श्रेष्ठ प्रयास करने से रोक रहा है। केशव प्रसाद मौर्य ने 2017 में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व को मन-मसोस कर मान लिया था। मगर, 2022 में भी केशव प्रसाद मौर्य क्यों ऐसा करें? जिस ओबीसी के दम पर बीजेपी ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनायी उस ओबीसी की ओर से सत्ता में हिस्सेदारी का यह सवाल है जिसे बीजेपी नेतृत्व नजरअंदाज कर रहा है। इस पर प्रतिक्रिया होगी और हो रही है। इस प्रतिक्रिया को बीजेपी के नेतृत्व का वह धड़ा होने दे रहा है जो योगी आदित्यनाथ से खुश नहीं है।
अब ब्राह्मण भी हैं बीजेपी की नाव छोड़ने को तैयार!
बीजेपी में एक और प्रतिक्रिया का इंतज़ार है और वह दिखेगी ही। यह प्रतिक्रिया है ब्राह्मणों की पार्टी में उपेक्षा की। बीजेपी में सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक हैं। मंत्री और उपमंत्री भी हैं। इसके बावजूद ब्राह्मणों की उपेक्षा का सवाल ब्राह्मण समुदाय में है। इससे निबटने के लिए बीजेपी ने 18 ब्राह्मण नेताओं की समिति भी बना दी। मगर, एक बार फिर अजय मिश्रा टेनी को महत्व देने की वजह से ब्राह्मण खुश नहीं हुए। बीजेपी में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी और कद्दावर नेता रीता बहुगुणा जोशी जैसी नेता को वह महत्व नहीं मिला। योगी राज में खुलकर क्षत्रियवाद हुआ और इसका सबसे ज्यादा शिकार ब्राह्मण समुदाय हुआ।
हिन्दुत्व की राह ब्राह्मणों को उपयुक्त लगती है। मगर, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यह राह उन्हें अब रास नहीं आ रही है जो ब्राह्मणों से दूरी रखते रहे हैं। इस वजह से बीजेपी में ब्राह्मण नेता भी उसी तरह के तेवर दिखलाने को तैयार बैठे हैं जैसे तेवर ओबीसी नेताओं ने दिखलाए हैं। क्या तब भी यही कहा जाएगा कि पांच साल तक सत्ता की मलाई खाने के बाद चुनाव के वक्त ऐसे नेताओं को ब्राह्मणों का हित याद आ रहा है?
राजनीति में दल छोड़ने-पकड़ने या राजनीति की नयी दिशा लेने के इस वक्त को टाइमिंग कहते हैं। चुनाव के वक्त कहीं से निकल कर कहीं जुड़ने की घटनाओं के जरिए राजनीति अपनी राह चुनती है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी से सत्ता निकलती हुई दिख रही है। ओबीसी के साथ-साथ ब्राह्मण नेताओं के दल छोड़ने का शुरू होने वाला सिलसिला इसकी पुष्टि कर रहा है। क्या बीजेपी में जो चुम्बकत्व घटा है उसकी वजह हिन्दुत्व है?बीजेपी के लिए अब संभलने का वक्त नहीं रहा।