हिंसा की घटना से किसान खुद शर्मिंदा थे। नेताओं की तरह सीना तान कर सही नहीं ठहरा रहे थे और न भाग रहे थे। बार बार कह रहे थे कि हिंसा ग़लत हुई। अगर किसानों का इरादा हिंसा का होता तो लाखों किसान थे। ज़्यादातर शांति से तय रूट पर गए और लौट गए। जिसने हिंसा की उसे लेकर कोई तरह के सवाल हैं। क्या ये किसी साज़िश का हिस्सा हैं? कभी पता नहीं चलेगा।
लेकिन इस घटना से जैसे सरकार को उग्र होने का मौक़ा मिल गया। धार्मिक संगठनों को आगे किया गया और फिर से गोली मारने के नारे लगे। किसानों को दमन का भय दिखाया गया। सरकार , मीडिया और पुलिस प्रशासन अति उग्र हो गए जबकि सरकार को हिंसा के बाद बात करनी चाहिए कि अभी हालात ठीक नहीं है। आप लोग वापस जाएँ और फिर बात होगी लेकिन किसानों को गिद्ध और आतंकवादी कहा जाने लगा। जो लोग दिन रात हिंसा की राजनीति करते हैं वो हिंसा से शर्मिंदा किसानों को उपदेश दे रहे थे। जबकि बात कर माहौल ठंडा करना चाहिए था। मुमकिन था कि किसान लौट भी जाते और जाने भी लगे थे।
मगर मीडिया के ज़रिए लगातार हवा को गर्म किया गया। मीडिया से आप क्या नहीं करा सकते हैं। ये वो मीडिया है जो किसी को भी हत्यारा साबित कर दे। लोग जाने कब समझेंगे कि इसके कारण सीमा पर अपना बेटा भेजने वाला किसान अपने ही गाँव में अपने ही देश में सफ़ाई दे रहा है कि वह आतंकवादी नहीं है। और गोदी मीडिया के असर मिडिल क्लास चुप रहा। अजीब है। कम से कम ग़लत को ग़लत तो कहना चाहिए।
बहरहाल अब आगे क्या होगा? किसानों को पता है उनके पास एक ही चीज है। किसान होने की पहचान। वो ख़त्म हो गई तो वे उस धान के समान हो जाएँगे जिसका पूरा दाम नहीं मिलता है। हिंसा की आड़ लेकर किसानों पर हमला नहीं करना चाहिए था। वे खुद कह रहे थे कि जिसने हिंसा की है उससे नाता नहीं और उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए।
आज तो मीडिया ने अति ही कर दिया है। शर्म आनी चाहिए। ख़ैर एक बात साफ है। किसान आंदोलन के नेताओं ने देख लिया कि हिंसा की एक घटना पूरे आंदोलन को ख़त्म कर देती है। इसलिए शांति से चलने वाला आंदोलन ही दूर तक जाता है।