शकील अख्तर
पत्रकार को इतना असहाय कभी नहीं देखा। चाहे छोटे कस्बे का हो या दिल्ली का पत्रकार हमेशा एक कान्फिडेंस में रहता है कि वह कुछ भी कर सकता है, करवा सकता है। हालांकि अधिकांशत: वह गलत ही साबित होता है मगर सार्वजनिक तौर पर उसके तेवर कमजोर नहीं होते। यह पहली बार है कि एक पत्रकार को इतनी बेबसी में वीडियो जारी करके मदद मांगना पड़ी हो। और एक दूसरी पत्रकार को सोशल मीडिया के जरिए कहना पड़ा हो कि माफ करो! मुझे और कोरोना पाजिटिव मेरे माता पिता को अकेला छोड़ दो। पहले टीवी पत्रकार अजय झा की बात और फिर बीबीसी की पत्रकार Bushra Sheikh की।
पत्रकार अजय कई चैनलों में रहे। और आज की सबसे बड़ी ऐजेन्सी एएनआई में भी। फोन में तमाम अफसरों, नेताओं के नंबर और जानपहचान का बड़ा दायरा। लेकिन क्या हुआ? कोरोना से सास श्वसूर की मृत्यु हो गई। घर में शव पड़े रहे। सब अधिकारियों को फोन किए। मगर कोई नहीं आया। परिवार में बाकी खुद, पत्नी जो खुद भी पत्रकार है और दो छोटी बेटियां सब की रिपोर्ट पाजिटिव। कोई मदद नहीं कोई सुनने को तैयार नहीं। बुरी तरह टूट गए पत्रकार को एक वीडियो के जरिए मार्मिक अपील करना पड़ी।
राहुल गांधी ने उस वीडियो को जब ट्वीट किया तो सबको मालूम पड़ा। कैसे दिल को चीर देने वाली अपील थी। पत्रकार सक्रिय हुए। कोशिशें तेज हुईं। कुछ पैसा इकट्ठा हुआ। मगर केन्द्र और दिल्ली सरकार के स्तर पर कोई मदद नहीं हो पाई। पहली जरूरत थी शवों का दाह संस्कार। यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बी वी श्रीनिवास और दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अनिल चौधरी आए और शवों का दाह संस्कार किया। खाने पीने का इंतजाम देखा और खुद खड़े होकर घर के आसापास को सेनेटाइज करवाया।
लोग मदद नहीं करते मगर सवाल जरूर उठाते हैं। और राहुल की, कांग्रेस की समस्या या स्वभाव जो भी कहो ऐसा है कि वे बताते नहीं। आज के समय में जब प्रचार के दम पर कोरोना को हराने और चीन को वापस धकेल देने तक का माहौल बनाया जा रहा है तब भी राहुल के यहां से उनके किए गए काम को बताना अच्छा नहीं माना जाता। उन्हें कौन समझाए कि नेकी कर दरिया में डाल का जमाना नहीं है। आज प्रचार के दम पर उनकी छवि इनमेच्योर व्यक्ति से लेकर नान सीरियस नेता तक की बना दी गई है। भारत में आज भी लोग सच्चाई से ज्यादा मिथ और इमेजेस पर भरोसा करते हैं। लोगों तक अपनी बात और काम पहुंचाना पड़ेंगे।
2014 का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के सब बड़े नेता यह कह चुके हैं कि हम अपने कामों का प्रचार नहीं कर पाए। प्रचार में कमजोर हैं। मगर छह साल में भी उन्होंने अपनी इस कमजोरी को दूर करने की कोशिश नहीं की। तो खैर मंगलवार के ट्वीट करने के अगले दिन बुध को पता चला पाया कि राहुल ने फोन करके कहा कि जब भी जरूरत हो रात दो बजे भी फोन करना। जहां कहेंगे, अपोलो, मैक्स कहीं भी भर्ती करवा देंगे। और सबको। समस्या यहीं थी।
मंगलवार को केन्द्र और दिल्ली सरकार के लोग केवल पत्रकार अजय को भर्ती करने की बात कर रहे थे। अजय पत्नी और बच्चियों को छोड़कर कैसे जा सकता था। जबकि समझा जा सकता है कि अपने मां बाप दोनों को उसी घर में खोकर पत्नी की हालत क्या होगी। अजय की सही समय पर मदद हो गई। लेकिन वैसे तो कई पत्रकार बिना मदद के परेशान हैं मगर जिन्होंने आवाज उठाई उनमें बीबीसी की पत्रकार बुशरा शेख की कहानी भी बहुत दर्दनाक है। उन्होंने फेसबुक पर अपनी व्यथा लिखते हुए पहला वाक्य लिखा है कि " आम आदमी पार्टी ( आप) के लोगों से हाथ जोड़ के विनती है कि हमारा पीछा छोड़ दें। मुझे इस बात का यकीन हो चुका है कि 'आप' वालों से कुछ नहीं हो सकता। " उन्होंने आगे लिखा है कि अम्मी और पापा कोरोना पाजिटिव हैं। परिवार के बाकी चार लोगों की टेस्टिंग ही नहीं हो रही। रोज नया फोन नंबर दे रहे हैं। कह रहे हैं कि घर में छह लोग नहीं रह सकते। तीन कहीं और शिफ्ट करो। बुशरा ने लिखा कि ऐसे में कहां जा सकते हैं? अगर टेस्ट हो जाता नेगेटिव आता को किसी रिश्तेदार से कह भी सकते थे। ऐसे में कौन रखेगा?
यह क्या है? पत्रकार की यह हालत हो गई कि दूसरों के दर्द की कहानी लिखते लिखते उसे अपनी कहानी कहना पड़ रही है। पत्रकार कोई अनोखा नहीं है कि वह अलग से कोई सुविधा मांग रहा हो। लेकिन समस्या यह है कि उसे रोज फील्ड में न्यूज कवरेज के ले जाना होता है। बिना किसी प्रोटेक्शन किट के। और जब वह देर रात घर लौटता है तो खतरे की आशंका के साथ। अपने साथ वह पूरे परिवार को भी लगातार खतरे में डाले हुए है। उसे कोराना वारियर तो कह दिया। उसके लिए ताली थाली भी बजवा ली। कई पत्रकारों ने बड़े भक्ति भाव से इसमें हिस्सा लिया। मगर कोरोना वारियर को मिलने वाली कोई सुविधा उसे नहीं मिली। मार्च में ही मांग की गई थी पत्रकारों को इंश्योरेंस कवर दिया जाए। लेकिन नहीं सुना गया। अभी दिल्ली में दूरदर्शन का एक कैमरामेन कोरोना से मर गया। एक प्राइवेट चैनल के कैमरामेन ने आत्महत्या कर ली। देश में और भी जगह कई घटनाएं हुईं। लेकिन पत्रकारों की किसी को चिन्ता नहीं है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, कोरोना वारियर जैसे कई महिमा मंडन तो होते रहते हैं मगर उसे इलाज जैसी मूल सुविधा भी मिल जाए इस पर कोई सरकार कुछ नहीं सोच रही। अजय और बुशरा द्वारा अपनी आवाज खुद उठाने के बाद पत्रकारों के बीच भी थोड़ी चेतना आई है। मगर उनके व्यक्तिगत प्रयासों से ज्यादा कुछ हो नहीं पाएगा। केन्द्र और राज्य सरकारों को कोई नीति बनाना पड़ेगी। जिसमें लाइफ इंश्योंरेंस, टेस्टिंग की सुविधा, फ्री चिकित्सा आदि शामिल करना होंगे। पत्रकार बहुत निराश हैं। उन्होंने कभी इतना हेल्पलेस होने की कल्पना भी नहीं की थी। कहां वह अपने मोहल्ला पड़ोस के लोगों का इलाज करवाते थे, कहां खुद उनके टेस्टिंग तक के लाले पड़ गए।
Shakeel Akhtar
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। नवभारत टाइम्स के राजनीतिक संपादक और चीफ आफ
ब्यूरो रहे हैं।)