फिर गले मिल सकते है गहलोत और पायलट, समझौते के अलावा कोई बेहतर विकल्प नही
राजनीति में किसी तरह की भविष्यवाणी करना बहुत बड़ा जोखिम का काम है । फिर भी मेरा अनुमान और दिल्ली के संकेत है कि अंततः अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच समझौता हो सकता है । एक बार उस समय भी समझौता हुआ था जब पायलट मॉनेसर से जयपुर लौटकर आए थे । इस बार समझौते का स्वरूप क्या होगा, फिलहाल स्पस्ट नही है ।
हो सकता है पायलट के नाम पर गहलोत सहमत हो जाए और उनकी नकेल कसने के लिए वे अपने दो विश्वस्तों को डिप्टी सीएम बनवा दे । यह भी हो सकता है कि पायलट सीएम का पद छोड़े ही नही । ऐसी स्थिति में पायलट फिर से बगावत के रास्ते पर जा सकते है । अगर दोनों के बीच समझौता नही होता है तो पार्टी की हालत जो पहले से खस्ता है, और बदतर हो सकती है । मिशन 24 तो क्या, मिशन 23 भी सफल नही होने वाला है । इसलिए पार्टी के कुछ नेता पायलट और सचिन को एक जाजम पर बैठाकर स्थायी समझौता कराने के प्रयास में जुटे हुए है ।
भले ही गहलोत गुट की ओर से कितनी भी सफाई पेश की जाए । लेकिन हकीकत यह है कि रविवार का पूरा ड्रामा पहले से ही नियोजित था । कुशल नेताओ द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट के आधार पर सबने बखूबी अपने अभिनय को अंजाम दिया । गहलोत का एकमात्र उद्देश्य सचिन को पूरी तरह एक्सपोज करना था । गहलोत बताना चाहते थे कि पायलट की दुकान में कोई सामान नही है । करीब 92 विधायको का अपने पक्ष में इस्तीफा कराकर गहलोत ने जाहिर कर दिया कि बहुमत उनके साथ है ।
बदली हुई परिस्थितियों में सचिन के साथ साथ तथाकथित आलाकमान को भी पूरा एहसास होगया है कि गहलोत से पंगा लेना ठीक नही है । इन हालातों में आलाकमान ऐसा रास्ता खोजने की जुगत में है जिससे दोनों का सम्मान बरकरार रहे । गहलोत का मकसद पायलट की हेकड़ी भी निकालना भी था । अब यदि कोई समझौता होगा तो गहलोत की शर्तों पर होगा न कि पायलट की शर्तों पर । समझौते में यह शर्त भी गहलोत की ओर से जोड़ी जा सकती है कि 50 फीसदी मंत्री उनके होंगे । इसके अलावा दो डिप्टी सीएम की भी शर्त रखी जा सकती है । पायलट के पास गहलोत के साथ समझौता करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नही है । जबरन सीएम थोपने की गलती का नजारा आलाकमान बखूबी देख चुका है ।
गहलोत मैनेज करने के हेडमास्टर तो है ही, इसके अलावा राजनीतिक उठापटक को उन्होंने इस तरह अंजाम दिया कि वे तकनीकी रूप से किसी भी दृष्टि से दोषी नही ठहराए जा सकते है । चूंकि पर्यवेक्षको द्वारा उन्हें क्लीनचिट दे दी गई है, इसलिए वे राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव लड़ने के लिए राजी हो जाए । वैसे वे राजस्थान छोड़ने के मूड में बिल्कुल नही है । लेकिन आलाकमान ने दबाव डाला तो वे नामांकन भर सकते है ।
दोनो गुट अपने भविष्य को लेकर चिंतित है । पार्टी के अधिकांश विधायको को भी अपने और परिवारजनों को लेकर चिंता है । कई विधायको ने तो अगले चुनाव में उतारने के लिए पुत्र, पत्नी, पुत्री और पुत्रवधु तक को तैयार कर लिया । विदायक जानते है कि दोनो के बीच लड़ाई जारी रही तो अंततः नुकसान तो पार्टी का ही होगा । पार्टी यानी विधायको का । इसलिए सबकी मंशा यही है जल्दी युद्धविराम हो जाए । ऐसे में हो सकता है कि गहलोत की रजामंदी के बाद कुछ मंत्रियों को छोड़कर अधिकांश विधायक सचिन को लेकर अपना मानस बदल दे । लेकिन इतना तो तय है कि समझौते के अलावा कोई बेहतर कोई विकल्प नही हो सकता है । अगर ऐसा नही हुआ तो ढूँढने से भी कांग्रेस के अवशेष नही मिल पाए ।