अंधेरों से ज्यादा मुखर है उजालों की दस्तक!
The knock of light is louder than darkness
बादल सरोज
महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण के विरुद्ध पूरे देश को झकझोर देने वाली हाल के दौर की एक शानदार लड़ाई की नेतृत्व त्रयी विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया ने कहा है कि "सरकार ने भाजपा सांसद के खिलाफ आरोप-पत्र दायर करने का अपना वादा पूरा किया है। भारतीय कुश्ती महासंघ में सुधार के संबंध में नए कुश्ती संघ के चुनाव की प्रक्रिया भी बातचीत के दौरान किये वायदे के अनुसार शुरू हो गई है। अब इस 11 जुलाई को तय चुनाव के संबंध में सरकार ने जो वादे किए हैं, उन पर अमल होने का इंतजार रहेगा।"
पिछले रविवार को एक जैसे ट्वीट के साथ उन्होंने एलान किया कि "अब भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) प्रमुख और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ लड़ाई सड़कों पर नहीं, बल्कि अदालत में लड़ी जाएगी।" यह तार्किक बात थी, कायदे से इस एलान का स्वागत होना चाहिये था, इन बहादुर खिलाड़ियों को उनकी कठिन लड़ाई को जीतने के लिए शाबाशी दी जानी चाहिये थी, इस जीत का जश्न मनाया जाना चाहिये था ; मगर हुआ उलटा।
जीत की खुशियाँ चुरा लेने की सुपारी लिए बैठे गोदी मीडिया ने, जिसने कभी भी इस आन्दोलन को सकारात्मक कवरेज नहीं दिया था, यौन दुराचारी भाजपा सांसद के कसीदे काढ़े, उसकी बकवास और आपत्तिजनक टिप्पणियाँ लाइव दिखाईं, जिसने 28 मई को उनके साथ हुयी निर्ममता का जिक्र तक नहीं किया था, उसने "हार गए, हार गए, खिलाड़ी भी हार गए" का शोर मचाना शुरू कर दिया। योगेश्वर दत्त और उन जैसे सरकारी पिट्ठुओं को आगे करके इनके खिलाफ झूठ और अर्धसत्य फैलाने की अपनी आजमाई हुयी मुहिम छेड़ दी और इस तरह योजनाबद्ध तरीके से पूरे देश में यह माहौल बनाने की कोशिश की कि इतना सब करने के बाद भी आखिर में जीता तो वही ना, जो हमेशा जीतता है। प्रचार के सारे संसाधनों पर कब्जा करके माहौल बनाया जा रहा है कि अब लड़ने से कोई फायदा नहीं है ; कि अब तो उन्हें जो करना है, वे वही करेंगे ; कि अब खुद ब्रह्मा जी आकर विराज गए हैं और उनका अब कोई विकल्प ही नहीं है ; कि उनकी तिकडमों - चतुराइयों - धूर्तताओं का कोई तोड़ नहीं है ; कि अब उनका मुकाबला करने लायक कोई ताकत, कोई संभावना बची ही नहीं है।
इस तरह का माहौल बनाने के लिए उन्होंने मीडिया के सारे गधे-घोड़े काम पर लगा रखे हैं। मीडिया मतलब सिर्फ टीवी और अखबार - दिखाऊ और छपाऊ भर नहीं, लगाऊ, भिडाऊ, लिखाऊ, पढ़ाऊ सब के सब एक साथ लगा दिए हैं। राय बनाने, एक जैसे भाव और अहसास उत्पादित करने के लिए सारे संसाधन झोंक दिए हैं। इनमे बाबे हैं, बाबियां हैं, साधू हैं, साध्वियां हैं, फ़िल्में हैं, सीरियल हैं, स्कूल-कालेजों की पढाई का सिस्टम है, पढ़ाया जा रहा पाठ्यक्रम है!! सबका एक ही काम है : अवाम में अहसासे कमतरी, हीन भावना, पस्तहिम्मती पैदा की जाए। उन्हें एकजुट होने से रोकने के लिए किसी न किसी आधार पर अलग-अलग बांटने का काम वे पहले से ही कर रहे थे।
यह दौर अँधेरे का दौर है ; अँधेरे बरपाए जा रहे हैं, अँधेरे गहराए जा रहे हैं। न सिर्फ इन अंधेरों को चिरायु और दीर्घजीवी बनाने के लिए पूरी ताकत लगाई जा रही है, बल्कि आँखों को अन्धकार का अभ्यस्त बनाने, उनमें प्रकाश का डर पैदा करने की भी तिकड़में रची जा रही हैं, भाषा, अर्थ और शब्दकोश बदल कर इन अंधेरों को ही प्रकाश, उजाला, रोशनी का समानार्थी, पर्यायवाची बनाने की साजिशें भी रची जा रही हैं। अँधेरे किनके लिए फायदेमंद होते है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। जिनके द्वारा, जिनके लिए इन्हें फैलाया जा रहा है, उनके द्वारा क्या-क्या किया जा रहा है, इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। पिछले नौ साल का हिसाब सामने हैं, जिसे छुपाने के लिए अपराधियों को नामजद होने से बचाने के लिए इन अंधेरों को और ज्यादा गाढ़ा करना उनके पास एकमात्र रास्ता है ।
बात इतनी भर होती तो भी खैरियत थी, क्योंकि मानव समाज इसी तरह के घटाटोप को चीरते हुए आगे बढ़ता रहा है। हमारे दौर के इन अंधेरों की एक ख़ास बात और है, वह यह कि ये दिमाग की बत्ती गुल करने की भी कोशिश कर रहे हैं। अपनी दीर्घायुता के लिए माहौल तैयार कर रहे हैं। एक झक्की समाज बनाने के लिए सिनिसिज्म पैदा कर रहे हैं। एक कुहासा पैदा किया जा रहा है कि अब कुछ नहीं हो सकता, कि अब इन्हें हराना और इन्हें दूर करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। विडम्बना की बात यह है कि इस मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म के शिकार वे लोग भी हो रहे हैं, जो दरअसल खुद अपनी जद्दोजहद से इस हिप्नोटिज्म को तोड़ रहे हैं, इसके खिलाफ लड़ रहे हैं, इसे हराकर जीत भी रहे हैं। मगर खुद अपनी जीत के बावजूद इनकी अपराजेयता के झांसे में आ रहे हैं। उनके झूठे प्रचार के असर में आ रहे हैं।
खिलाड़ियों के मामले में इसी तरह का पराजय बोध बाकी के लोगों के एक हिस्से -- पढ़े-लिखे समझदार हिस्से -- में भी दिखाई देना इसी का उदाहरण है। इन्हें भी लगा कि जैसे यह लड़ाई "भी" हार गए। "भी" इसलिए कि ठीक यही अहसास किसान आन्दोलन के बाद भी पैदा किया गया था। बाकी के अन्य जनांदोलनों के दौरान और उसके बाद भी पनपाया गया था।
जब कि असलियत यह है कि यह समय सचमुच में सिर्फ अंधेरों का दौर नहीं है ; इसके विपरीत यह अंधेरों के टूटने, उनके छंटने की शुरुआत का दौर है। यह समय अंधेरों के अंत के आगाज़ का समय है। सिर्फ हालिया घटनाओं पर निगाह डाल लें, तो वे इसी की ताईद करती नजर आती हैं। हाल का समय उनकी हार का, छोटी-मोटी नहीं, बड़ी पराजयों का समय है। उनके हर बड़े हमले को देश ने अस्वीकार किया है, उसे वापस लेने के लिए विवश किया है।
🔺तीन कृषि क़ानून लाये गए। लेकिन जनता के विराट सहयोग और समर्थन को हासिल करके चले 13 महीने 18 दिन के एतिहासिक किसान आन्दोलन ने उन्हें इन कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया।
🔺 मजदूरों को लगभग बंधुआ गुलाम बनाने वाले चार लेबर कोड चार साल पहले 2019 में संसद में पारित कराये जा चुके हैं, मगर मजदूरों के तीखे तेवरों और हड़तालों के चलते सरकार आज तक उन्हें अमल में लाने का साहस नहीं कर पाई।
🔺 इसके बाद खूब तामझाम के साथ सीएए/ एनआरसी का क़ानून लाया गया -- कोरोना में शाहीन बागों के उजड़ जाने के बावजूद अभी तक उस पर अमल करने की हिम्मत नहीं हुयी।
🔺 इन तीन बड़े, ऐतिहासिक, निर्णायक जीत वाले संघर्षों के अलावा चौथा मोर्चा देश के सभी विश्वविद्यालयों की छात्र-छात्राओं ने लिया था, जिसने इस भरम को तोड़ दिया कि देश के सारे युवा मौजूदा हुक्मरानों के साथ हैं, जिसने देश भर के उन युवाओं को भी इस हुकूमत की असलियत दिखा दी - जो इसके असर में थे।
🔺 सारी कोशिशों के बावजूद सिनेमेटोग्राफी एक्ट में बदलाव भी लागू नहीं कर पाए।
🔺 इसी क्रम में है दिल्ली के जंतर मंतर पर बैठी खिलाड़ीनों का आंदोलन, जिसने सारी शकुनि-दु:शासनी चालों को परास्त करते हुए सरकार को अपने चहेते सांसद के खिलाफ मुकदमा दाखिल करने को विवश कर दिया, उसकी अध्यक्षता वाली कुश्ती फेडरेशन को भंग कर नए चुनाव का ऐलान कर दिया ।
ये कम बड़ी जीतें नहीं हैं -- ये कम बड़े संघर्ष नहीं हैं। हालांकि किसी भी संघर्ष की सफलता का पैमाना सिर्फ जीत या हार नहीं होती -- आंशिक सफलताएं भी सफलता ही होती हैं, जिन संघर्षों में सफलताएं नहीं भी मिलतीं, वे विफल रहे, यह कहना अति-सरलीकरण है ; हथोड़े की हर चोट भले शिला को न तोड़े, किन्तु उसकी मजबूती को तो कमजोर कर ही जाती है। ठीक इसीलिए इनका महत्त्व सिर्फ इनकी जीत में ही नहीं है -- इनके असर में भी नापा जाना चाहिये।
बिला शक इनने, इन सभी आंदोलनों, लड़ाईयों ने संघर्ष के नए व्याकरण गढ़े हैं। नए रूप, नए रास्ते, नए कीर्तिमान बनाए हैं। हरेक का अपना नयापन है। उनका सार है : अधिकतम लामबंदी, व्यापकतम एकता, रूप पर नहीं, सार पर निशाना, परिणाम से नहीं, कारण से लड़ना, महिलाओं का सदियों पुरानी रवायतों को तोड़कर सड़क पर उतरना। हजारों साल पुरानी जाति वगैरा की बेड़ियों को, भले फिलहाल के लिए ही सही, ढीला करना ।
कुल मिलाकर यह कि अन्धेरा बिखर रहा है -- संसद से सड़क तक जारी मुहिमों से सन्नाटा टूट रहा है। आगे के दिनों के लिए भी इसकी पर्याप्त तैयारियां हैं। जैसे संयुक्त किसान मोर्चे ने नवम्बर तक के आव्हान किये हुए हैं : जो अभी सम्मेलनों से शुरू हुए हैं, 8-9 अगस्त, 14 अगस्त की रात्रि हर गाँव में मनाते हुए, सितम्बर में देश भर में किसान यात्राएं निकालकर 26 नवम्बर को प्रदेशों की राजधानियों में पहुंचेंगे। इसी के साथ, इसके अलावा सारे श्रमिक संगठन खुद एक हुए हैं और इतिहास में पहली बार मजदूर-किसान दोनों एक मोर्चे पर आये हैं। बाकी समुदाय भी चुपचाप नहीं बैठे हैं। दिल्ली में महिला संसद हुयी है और पहली बार सारे महिला संगठन इकट्ठा होकर साझे मुद्दों पर मैदान में उतर रहे हैं। युवा और छात्र पहले से ही मैदान में हैं।
कर्नाटक चुनाव के नतीजे गवाही देते हैं कि मैदानी संघर्षों की यह आंच राजनीतिक गर्माहट में भी बदल रही है। इनके चलते सन्नाटा ऐसा खिंचा है कि इस साल के अंत में होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगली साल होने वाले लोकसभा चुनाव में सफाए का डर सताने लगा है। और तो और, खुद आर एस एस को अपने मुखपत्र ऑर्गनाइजर में लिखना पड़ा कि अब अकेले मोदी के दम पर चुनाव लड़ना-जीतना मुश्किल है, राज्यों और स्थानीय नेताओं को भी सामने लाना होगा। यह भी कहा कि सिर्फ हिंदुत्व के नाम पर चुनाव नहीं जीत सकते -- जनता के जीवन के मुद्दों का भी समाधान करना होगा। यह बात अलग है कि इस विचार परिवार में कथनी और करनी में कोई मेल नहीं होता। 13 जून को कर्नाटक हारे हैं और अगले ही दिन 14 जून को समान नागरिक संहिता का फुन्तरू लेकर फिर एक बार ध्रुवीकरण का दांव खेल दिया है।
मगर लोकतंत्र और संविधान के हिमायती दल और संगठन भी सजग हैं। 23 जून को पटना में अनेक विपक्षी दलों का समावेश इस प्रक्रिया को और तेज - और ज्यादा कारगर और परिणाम मूलक करने जा रहा है। ज्यादातर राजनीतिक दलों की समझ में आया है कि आग बुझाना है, तो हर तरह के पानी का इस्तेमाल करना होगा। हालांकि अभी उनके द्वारा गढ़े गए झूठे नैरेटिव को तोड़ना होगा कि फलां नहीं, तो कौन? याद में लाना होगा कि इस देश में राष्ट्रपति प्रणाली नहीं है -- संसदीय लोकतंत्र है और इसमें समाधान व्यक्तियों के रूप में नहीं, मोर्चों और नीतियों के रूप में निकलते हैं।
इसी देश में मौजूदा फलाने से ज्यादा बड़े व्यक्तियों के विकल्प भी उभरे हैं -- चुनाव के पहले नहीं, उसके बाद उभरे हैं। 1977, 89, 96, 2004 में इसी तरह विकल्प उभरे हैं। इस बार भी इसी तरह उभरेंगे। यह भी कि भारत विविधताओं का देश है - इसलिए जरूरी नहीं कि पूरे देश के पैमाने पर एक साथ, एक जैसा मोर्चा बने!! प्रदेशों की विशेषताओं के आधार पर गठबंधन बनेंगे, तालमेल होंगे - रास्ते निकलेंगे। इस तरह यह समय अंधेरों के बिखेरने की जिद और संकल्प का समय भी है।
पिछली सदी के आखिर के वर्षों में दुनिया में एक चर्चित उपन्यास श्रृंखला आयी थी ; सुश्री जे के रोलिंग लिखित हैरी पॉटर की श्रृंखला!! इसमें एक पात्र था डिमेंटर, जिसे हिंदी में दमपिशाच नाम दिया गया था। इसकी खासियत यह थी कि यह जैसे ही आसपास आता था, वैसे ही सारे लोगों का उत्साह खत्म हो जाता था, पूरे माहौल में निराशा हावी हो जाती थी, हताशा की दमघोंटू घुटन छा जाती थी। यह जिसे छू लेता था, उसकी आत्मा चुरा ले जाता था और उसे सिर्फ एक शिथिल देह बनाकर छोड़ जाता था।
यह इसी तरह के दमपिशाचों का समय है। इसका इलाज, इससे बचने का तरीका सिर्फ एक था : इसके हमले के समय अपनी खुशियों के पलों को याद करना, अपनी कामयाबियों को याद करना और उन्हें दोहराना। उम्मीदों, सुखद सम्भावनाओं के बारे में सोचना और उन्हें हासिल कराने के संकल्प को दोहराना। ऐसा करते ही दमपिशाच हार कर गायब हो जाता था -- माहौल एक बार फिर खुशनुमा हो जाता था।
ठीक यही इलाज इस समय का है। हासिल को जोड़ कर, सहेज कर, उसे बहुगुणित करने की कोशिशें तेज करने का समय - प्रायोजित पस्तहिम्मती को ध्वस्त करने का समय। मनुष्यता इसी ओर बढ़ी है, क्योंकि अँधेरे चिरायु नहीं होते - एक ज़रा सी तीली उनका साम्राज्य खत्म करने की ताब रखती है।