जयंती जसवंत सिंह की, बात मानवेंद्र सिंह की…

जयंती पर मारवाड़ के कद्दावर नेता जसवंत सिंह जी को विनम्र श्रद्धांजलि

Update: 2024-01-02 15:22 GMT

अरविन्द चोटिया, वरिष्ठ पत्रकार 

मारवाड़ के छोटे से गांव जसोल के नाम को देश-दुनिया में पहचान दिलाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह जसोल की कल जयंती है। कभी बीजेपी के पोस्टरों में अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी तस्वीर लगा करती थी। यानी बीजेपी के टॉप तीन लोगों में से वे एक हुआ करते थे। अटलजी 2014 से पहले ही जीते जी परिदृश्य से ओझल हो गए तो लालकृष्ण आडवाणी के लिए 2014 का लोकसभा चुनाव आखिरी चुनाव साबित हुआ। हालांकि वह सम्मानजनक नहीं था। लेकिन जसवंत सिंह के लिए यह चुनाव एक त्रासदी थी। वे अपना आखिरी चुनाव अपने गृह क्षेत्र बाड़मेर-जैसलमेर से पार्टी के टिकट पर लड़ना चाहते थे लेकिन राजस्थान की सत्ता पर काबिज वसुंधरा राजे ने यह होने नहीं दिया।

हालांकि प्रण के पक्के जसवंत सिंह ने चुनाव लड़ा और जीतने लायक वोट भी हासिल किए लेकिन वह चुनाव ही ऐसा था कि निर्दलीय चुनाव लड़कर चार लाख वोट भी जीत के लिए पर्याप्त नहीं थे। यहां कांग्रेस से बीजेपी में लाए गए कर्नल सोनाराम चौधरी चुनाव जीत गए। जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। इसके बाद जसवंत सिंह घर में ही एक हादसे का शिकार होकर हमेशा के लिए बिस्तर पर तो चले गए लेकिन परिदृश्य से गायब वे आज तक नहीं हुए। जसवंत सिंह के इस घटनाक्रम के समय उनके पुत्र मानवेंद्रसिंह इस दौर की चर्चित विधानसभा सीट शिव से भाजपा विधायक थे। 2018 के विधानसभा चुनाव आते-आते मानवेंद्र सिंह ने स्वाभिमान की बात उठाई और जोरदार समर्थन हासिल किया। एक बड़ी स्वाभिमान रैली भी हुई जिसकी चर्चा खूब रही लेकिन न जाने कौन मानवेंद्र के सलाहकार थे कि उन्होंने इसके बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने सबसे पहले उनका इस्तेमाल विधानसभा चुनाव में झालरापाटन सीट पर तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सामने उतारकर किया जहां उन्हें बड़ी हार मिली।

सरकार कांग्रेस की आई और मानवेंद्र को सत्ता में एडजस्ट कर दिया गया। 2019 के चुनाव में उन्हें बाड़मेर लोकसभा क्षेत्र से टिकट दिया गया जहां से वे पहले भी सांसद रह चुके थे। लेकिन उन्हें फिर एक बड़ी हार से रूबरू होना पड़ा। 2023 में फिर विधानसभा चुनाव आया और मानवेंद्र ने जैसलमेर सीट से दावेदारी कर दी। लेकिन उनको अपनी पसंदीदा सीट की बजाय सिवाना से चुनाव लड़ने भेज दिया जहां कांग्रेस के एक बागी सुनील परिहार ने कांग्रेस के अच्छे खासे वोट काट लिए और मानवेंद्र को तीसरी हार झेलनी पड़ी। इधर, सरकार बीजेपी की आ गई और वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री भी नहीं बनाया गया। चूंकि जसोल परिवार की रार वसुंधरा राजे से ही थी और उनके प्रभावी भूमिका में नहीं रहने से चर्चा है कि अब वे भाजपा में वापसी कर सकते हैं। लेकिन जैसी कि दुनिया की रीत है, तीन चुनाव लगातार हारने के बाद कोई भी अपनी शर्तों पर चलने की स्थिति में नहीं होता। यही मानवेंद्र सिंह के साथ भी है।

हालांकि बताया जा रहा है कि मानवेंद्र सिंह की कुछ सही जगहों पर बातचीत हुई है और वे मलमास के बाद अपनी पुरानी पार्टी में भी वापसी कर सकते हैं। लेकिन सवाल वही होगा कि वे किस भूमिका में वापसी करेंगे? उन्हें 2024 का टिकट मिलेगा या नहीं? पार्टी में फिर से वह हैसियत मिलेगी या नहीं? जैसे उनके मिजाज हैं, उसके हिसाब से वे खुद को पुरानी पार्टी एडजस्ट कर पाएंगे या नहीं? और एडजस्ट नहीं कर पाए तो आगे रास्ता क्या होगा? बहुत सारे सवाल हैं। लेकिन यह तथ्य है कि मानवेंद्र के साथ ही जैसलमेर-बाड़मेर का राजपूत समाज पिछले चुनाव में स्वाभिमान के नारे पर भाजपा से कट गया था। इस चुनाव में हालांकि एक बड़ा हिस्सा फिर से लौट आया जिसका सबूत दोनों जिलों की नौ में से छह सीटें बीजेपी के जीतने से मिलता है। साथ ही दो सीटों पर बीजेपी के बागी भी जीते हैं। पिछले चुनाव में स्थिति एकदम उलट हो गई थी। नौ में से महज एक सीट बीजेपी को जैसे-तैसे मिली थी। अब देखना है कि वक्त का पहिया किस तरह घूमता है।

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